Thursday, February 21, 2019

सरकार निकाले बदहाली से उत्तराखंडी सिनेमा को

वर्ष 1983 में जब 4 मई को पहली गढ़वाली फिल्म "जग्वाल" प्रदर्शित हुयी तब शायद किसी ने सोचा न होगा कि एक दिन यह फिल्म ऐतिहासिक बनेगी और उत्तराखंडी सिनेमा की नींव के तौर पर जानी जाएगी. यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि तब गढ़वाली फिल्म को उत्तराखंडी सिनेमा के किसी भी रूप में परिभाषित करने की संभावना नहीं के बराबर थी. आंचलिक फिल्म्स की इस फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ (वास्तविक नाम पारेश्वर गौड़) को भी शायद इसका अंदाजा न रहा होगा. हो सकता है कि उन्होंने "जग्वाल" के रूप में मात्र पहली गढ़वाली फिल्म बनाने का सपना देखा हो. याद है कि यह फिल्म सबसे पहले नई दिल्ली स्थित मावलंकर हॉल में दिखाई गयी थी. ऐसा इसलिए करना पड़ा था क्योंकि किसी रेगुलर सिनेमा हॉल का किराया देने के लिए आंचलिक फिल्म्स कंपनी के पास या पराशर गौड़ के पास पैसे नहीं थे और कोई सिनेमा हॉल या फिल्म वितरक इसे अपने बूते रिलीज़ करने को तैयार नहीं था.
बहरहाल, मावलंकर हॉल पर भीड़ इतनी उमड़ पड़ती थी कि बस मत पूछिए. मैं फिल्म बनाने वालों से लेकर फिल्म में काम करने वाले कई लोगों को जानता था पर पहले कुछ दिन फिल्म के दर्शन नहीं हो पाए, चूंकि फिल्म देखने वालों की संख्या बहुत ज्यादा और हॉल में सीटों की संख्या सीमित थी. खैर, कुछ दिन बाद फिल्म देखी और पहली बार परदे पर फिल्म के पात्रों को गढ़वाली में संवाद करते हुए देखा. यह अपने आप में एक अदभुत अनुभव था. एक बारगी लगा कि सत्यजित राय से लेकर कुरोसावा तक सब फीके पड गए हैं और उनकी फिल्में भी "जग्वाल" के सामने कुछ नहीं हैं. ऐसा शायद इसलिए लगा होगा क्योंकि भीतर का मन ऐसी ही कोई फिल्म देखना चाहता होगा जो सत्यजित राय या कुरोसावा की फिल्मों को टक्कर दे. कुल मिलाकर लगा जैसे हमारा अर्थात पहाड़ के लोगों का भी कोई अस्तित्व है और हम भी इस देश के सचमुच में नागरिक हैं. न जाने क्यों सर ऊंचा सा हो गया था. पहाड़ी होने की हीन भावना तो कभी रही नहीं पर न जाने ऐसा क्यों लगा था मानों औरों के समान्तर आ गए हैं.
उत्तराखंड के हजारों-हजारों लोग दशकों-दशकों से दिल्ली और ऐसे ही अनेक शहरों में रामलीलाएं करते आ रहे थे लेकिन तब ऐसा कोई अहसास नहीं हुआ जो मात्र एक गढ़वाली फिल्म के बन जाने से हुआ. और हां, यह अहसास केवल गढ़वाली लोगों को नहीं अपितु कुमांउनी लोगों को भी हुआ. संक्षेप में "जग्वाल'" के निर्माण को पहाड़ी या उत्तराखंडी पहचान और सांस्कृतिक अभिव्याक्ति के रूप में देखा गया. और, यही अभिव्यक्ति कालान्तर में उत्तराखंड सिनेमा के रूप में प्रकट हुयी. दिल्ली से बाहर के अनेक शहरों से लोग दिल्ली केवल और केवल इस फिल्म को देखने आये थे और जब टिकट नहीं मिली तो पांच रुपये की टिकट ब्लैक में सौ रुपये में भी खरीदी. वैसे तब पांच रुपये की भी खूब औकात होती थी.
"जग्वाल" के बाद अनेक फिल्में गढ़वाली और कुछ कुमांउनी में बनीं. उनके स्तर के बारे में यहां चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह विषय दूसरा है. हम मूल रूप से चर्चा इस बात पर करेंगे कि गढ़वाली और कुमांउनी फिल्में और बाद में इन दोनों भाषाओँ की एल्बम क्यों और किस प्रकार उत्तराखंड सिनेमा और उत्तराखंडी एल्बम के तौर पर धीरे-धीरे स्थापित हुईं. असल में गढ़वाल और कुमाऊं दोनों जगह के बहुत से लोग ऐसे थे जो अपनी-अपनी पहचान में ज्यादा और उत्तराखंडी पहचान में कम विश्वास रखते थे; लेकिन उत्तराखंड आन्दोलन और उत्तराखंडी पहचान का ऐसा दबाव था कि इन लोगों की एक नहीं चली और धीरे-धीरे ही सही; गढ़वाली और कुमांउनी सिनेमा उत्तराखंडी सिनेमा के रूप में अभिव्यक्ति पाने लगा. यह उत्तराखंडी पहचान की बड़ी जीत थी.
आज भले ही हमारे लोग गढ़वाली और कुमांउनी में फिलें बना रहे हैं लेकिन उनके दिमाग में बाज़ार के तौर पर पूरा उत्तराखंड है. फिल्म दोनों में से किसी भी एक भाषा में हो लेकिन संबोधन पूरे उत्तराखंडी समाज के लिए रहता है. कुछ फिल्मों में तो सीधे-सीधे लिखा होता है 'उत्तराखंडी फिल्म'.
और हां, पिछले तीन-चार साल में यंग उत्तराखंड नामक नौजवान लोगों की सामाजिक संस्था ने “यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स” की शुरुआत कर गढ़वाली- कुमांउनी के भेद को पूरी तरह समाप्त कर दिया है. अब लिहाजा इसी सन्दर्भ में पूरी बातचीत उत्तराखंडी सिनेमा पर रखी जाएगी. "जग्वाल" की पृष्ठभूमि में मंगलेश डबराल जी ने जब 1983 में "जनसत्ता" के रविवारी संस्करण के लिए मुझसे लेख लिखने को कहा था तब वास्तव में गढ़वाली सिनेमा पर लिखना चुनौती था क्योंकि सन्दर्भ के लिए कुछ भी नहीं था. बहरहाल, लेख लिखा और छपा भी. यह गढ़वाली सिनेमा पर पहला लेख भी था. बाद में "पर्वतवाणी" के लिए जब इसी बिषय पर लिखा तब कुछ आसानी थी. तब से लेकर अब तक गढ़वाली से लेकर कुमांउनी सिनेमा तक ने काफी कुछ सफ़र तय कर लिया है और आज इन दोनों की निजी पहचान कम और उत्तराखंडी पहचान ज्यादा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस पहचान में मजबूती आयी है.
अब कुछ खट्टी-मीठी बातें उत्तराखंडी सिनेमा के बारे में. उत्तराखंडी जनता के एक वर्ग ने जहां फिल्मों को सिर-आंखों पर लिया, वहीं दूसरी और उत्तराखंड सिनेमा की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाई. इसका कारण कमज़ोर ढांचे का होना रहा है. उत्साही प्रोडूसर पांच-सात लाख रुपये लगाकर उत्तराखंडी फिल्म बनाता है और फिल्म का विपणन करने वाली कंपनी शर्मनाक राशि देकर फिल्म के वितरण सम्बन्धी अधिकार खरीद लेती है. ऐसी स्थिति में कौन फिल्म बनाएगा? फिल्म निर्माताओं का ऐसा भी कोई संगठन नहीं है जो फिल्म वितरण का काम देखे. कुल मिलाकर या तो फिल्म निर्माता को शोषक वितरक पर निर्भर रहना पड़ता है अथवा अपने स्तर पर ही वीसीडी बेचने का काम भी करना पड़ता है. इस पूरी ज़द्दोजहद में कलाकार, संगीतकार, गीतकार, छायाकार, और अन्य सभी रचनाकार कहीं परदे के पीछे ही रह जाते हैं. उनके बारे में न तो कोई जानना चाहता है और न ही कोई बताने वाला होता है. अंत में यही कि फूक झोपड़ी, देख तमाशा!
लोगों में भी ऐसा कोई रुझान नहीं दिखाई देता कि वे उत्तराखंड सिनेमा को प्रोत्साहित करना चाहते हैं. पिछले दिनों यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स कार्यक्रम के दौरान फिल्म निर्माता और कलाकार राकेश गौड़ तथा कलाकार मदन डुकलान की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण थी कि यदि लोग हर महीने उत्तराखंडी फिल्मों की केवल एक वीसीडी खरीदने का निर्णय कर लें तो उत्तराखंड सिनेमा भी बच रहेगा, संस्कृति भी बचेगी और उत्तराखंड की भाषाएं भी बच रहेंगी. उम्मीद करते हैं कि ऐसा हो पर यदि नहीं हुआ तो दूसरा क्या उपाय हो सकता है?
हमारी नज़र में दूसरा उपाय केवल और केवल उत्तराखंड और केंद्र सरकार की और से संस्थागत समर्थन हो सकता है. अभी उत्तराखंड सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा है, उसमें सरकारी मदद के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता है. याद दिला दें कि इच्छाशक्ति हो तो सब कुछ हो सकता है. विश्व विख्यात फिल्म-मेकर सत्यजित राय को जब "पाथेर पांचाली" फिल्म बनानी थी तो वह पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यामंत्री के पास मदद के लिए गए और मुख्यमंत्री के कहने पर उन्हें वहां के परिवहन विभाग ने फिल्म बनाने के लिए पैसा दिया क्योंकि मुख्यामंत्री ने समझा कि फिल्म पथ परिवहन के बारे में होगी.
जब यह हो सकता है तो उत्तराखंड में जहां हर व्यक्ति अपने आप को संस्कृति का वाहक समझता है वहां संस्कृति विभाग या फिल्म प्रभाग क्यों नहीं उत्तराखंड सिनेमा को आगे लाने के लिए सब्सिडी दे सकता है? हमारे पास प्राकृतिक लोकेशंस हैं, फिल्म की समझ रखने वाले लोग हैं, कलाकार हैं, आम आदमी के नज़रिए से चीजों को देखने वाले हैं -- अर्थात सब कुछ है हमारे पास, पैसे के अलावा और पैसा सरकार दे सकती है. यह क्यों नहीं हो सकता कि सरकारी फिल्म विभाग अच्छी फिल्म स्क्रिप्ट्स का चयन स्वायत्त और प्रामाणिक संस्था का गठन कर करवाए और अपनी आर्थिक मदद से फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन दे?
हमारे जन प्रतिनिधियों को भी इस मामले में आगे आना होगा और फिल्मों के माध्यम से वहाँ कि संस्कृति, कलाओं, संगीत, लोक कलाओं, और भाषाओँ को बचाने की कोशिश कर रहे चंद लोगों की सहायता करनी होगी. यदि ऐसा नहीं हुआ तो घाटे में उत्तराखंडी फिल्म उद्योग कितने दिन आगे चल सकता है? 16-एमएम से शुरू हुआ फिल्मों का सफ़र 35-एमएम या 70-एमएम तक जाने के बजाय डिजिटल के माध्यम से आज वीसीडी तक आकर ठिठक गया है.
सरकारी मदद न मिली तो क्या पता यह भी गायब हो जाये और तब आने वाली पीढियां किताबों में पढ़ें कि कभी उत्तराखंड सिनमा भी हुआ करता था. देश की अन्य भाषाओँ के समृद्ध सिनेमा से तो तुलना करने का विषय ही नहीं है, यह बात तो तब होगा जब खूब उत्तराखंडी फिल्में बनेंगी और व्यावसायिक रूप से सफल भी रहेंगी. हमारा मानना है कि आज उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड भाषाओँ के सिनेमा को थोडा चलने लायक बना दे तो यह आने वाले समय में स्वयं दौड़ने लगेगा अपनी पूरी ताकत एवं सांस्कृतिक समृद्धि के साथ.
इस लेख के आरम्भ में कहा था कि "जग्वाल" फिल्म के रिलीज़ होने के बाद पहाड़ी समाज को लगा था कि वह भी और समाजों की बराबरी में आ गया है और बहुत कुछ कर सकता है. यही वह बात थी जिस चीज ने बाद में दर्ज़नों लोगों को गढ़वाली और कुमांउनी में खासतौर से फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया. इसे हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के उच्चीकरण के रूप में भी देख सकते हैं. आज इस चेतना को और आगे ले जाकर देश के बाकी हिस्सों की सांस्कृतिक चेतना के समकक्ष लाने की आवश्यकता है. फिल्म उद्योग इस काम को तेजी के साथ करने में सक्षम है और उत्तराखंड सरकार को यह बात जाननी और पहचाननी चाहिए. अभी भी समय है. किसी ने ठीक ही कहा है, जब जागो तब सवेरा!

-- सुरेश नौटियाल

Friday, February 9, 2018

राजेंद्र धस्माना: एक युग का अवसान!

-सुरेश नौटियाल
गढ़वाली थियेटर के पुरोधागांधी वांग्मय के पूर्व प्रधान संपादकदूरदर्शन और आकाशवाणी के समाचार संपादकउत्तराखंड आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर और कवि राजेन्द्र धस्माना जी का निधन गत 16 मई 2016 को दिल्ली में हुआ.
उनके शोक-संतप्त परिवार में पत्नी बसंतीविवाहित पुत्री परिधि धस्माना-नेगी और उनका परिवार, दो बेटे (केंद्रज और उसका परिवार तथा इन्दिवजल) ही नहीं बल्कि एक भरपूर विस्तारित परिवार है, जिसमें उनका भाई नरेंद्र और उसका परिवार, भतीजा पर्यंत और उसका परिवार, तीन बहनें और उनके परिवार ही नहीं बल्कि अनेक संबंधी, अनेक मित्र और शुभचिंतक आते हैं.
16-17 मई 2017 की मध्यरात्रि को धस्मानाजी के छोटे पुत्र इन्दिवजल का मेरे फेसबुक मैसेंजर में संदेश आया. नींद के झोंके में एक बार तो मन हुआ कि संदेश नहीं देखता हूं, पर फिर सोचा कि इतनी रात गए संदेश आया तो अवश्य कुछ बात होगी. मन में एक खटका सा भी था. इसलिए संदेश देखा. आघात हुआ पर आश्चर्य नहीं क्योंकि देर रात संदेश आने की घटना ने मन में एक तर्क तो गढ़ ही लिया था. इन्दिवजल ने संदेश में लिखा था पिताजी (धस्माना जी) नहीं रहे. बस इतना ही. कुछ अतिरिक्त जानकारियां लीं और मैंने भी अपनी वाल पर इस बारे में संक्षेप में लिख दिया. सवेरे उठा और सबसे पहले चन्दन डांगी द्वारा संपादित और पहाड़ संस्था द्वारा प्रकाशित संकलन “उत्तराखंड की प्रतिभाएं” निकाला और उसमें से सामग्री लेकर धस्मानाजी के बारे में एक पोस्ट डाला.
धस्मानाजी और मेरी मित्रता तीन दशक से भी अधिक समय तक रही, पर तब भी मुझे इस संकलन की आवश्यकता हुयी और यह बात भी समझ में आयी कि प्रतिभाओं और विभूतियों के बारे में सूचना संकलन कितना आवश्यक है.
अगले दिन निगमबोध घाट पर अनेक मित्र मिले. अधिकतर कॉमन फ्रेंड्स. धस्माना जी के बारे में बातें होती रहीं. कोई उनके व्यक्तित्व के बारे में तो कोई उनके कृतित्व के बारे में और कोई उनकी सहजता के बारे में. पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी, नाटक कलाकार, राजनीतिक कार्यकर्ता, संबंधी, मित्र, प्रशंसक, वैचारिक मित्र, इत्यादि, इत्यादि सब प्रकार के लोग वहां उपस्थिति थे.  
मैंने इन्दिवजल से पूछा कि एक प्रगतिशील व्यक्ति का अंतिम संस्कार जमुना के गंदे पानी और नितांत गंदगी के बीच क्यों किया जा रहा है? वह मेरी बात से सहमत था और उसने स्वयं भी कहा कि पिताजी यह सब पसंद नहीं करते थे पर परिवार वालों का सामूहिक निर्णय हावी रहा. यह बात बाद में 28 मई को प्रेस क्लब में स्मृतिसभा के दौरान सीपीआई-एमएल लिबरेशन के नेता राजा बहुगुणा ने भी उठायी. उन्होंने कहा कि वह पारंपरिक अंतिम क्रिया का विरोध नहीं कर रहे हैं लेकिन धस्मानाजी जैसे प्रगतिशील और पर्यावरण के लिए चिंतित व्यक्ति की अंतिम क्रिया इस प्रकार किया जाना उचित नहीं था. यह बात सही भी है.   
27 मई 2017 को नयी दिल्ली के जोरबाग स्थित आर्य समाज भवन में उनकी तेरहवीं का कार्यक्रम भजन और स्मृतिसभा के साथ हुआ. अगले दिन 28 मई को प्रेस क्लब ऑव इंडिया सभागार में क्लब की सहायता से उनकी स्मृति में एक सभा का आयोजन किया गया.   अनेक लेखकोंपत्रकारोंरंगकर्मियों, सामजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और समाज के अन्य वर्गों के लोगों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की. वक्ताओं ने उन्हें बहुमुखी प्रतिभा का धनी बताया.
स्मृतिसभा के अध्यक्ष प्रो. सच्चिदानंद सिन्हा ने कहा कि उनका व्यक्तित्व चुंबकीय था और उनके साथ विचारों की असमानता के बाद भी उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव स्वत: उपस्थित हो जाता था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी-एमएल लिबरेशन के नेता राजा बहुगुणा ने कहा कि वह लेखक और पत्रकार ही बल्कि एक बड़े आंदोलनकारी भी थे.
स्मृति-सभा में धस्माना जी के परिवार के सदस्य उपस्थित थे -- सच्चिदानंद सिन्हाजेबी सिंह नेगीपरिधि धस्माना-नेगीइन्दिवजल धस्मानानरेन्द्रधस्मानापर्यन्त धस्माना और खगोलिम नेगी. अन्य उपस्थित-जन में महत्वपूर्ण थे: विधिवेत्ता रविकिरण जैन, एक्टिविस्ट (गिरिजा पाठक, अरुण कुमार सिंहभूगर्भशास्त्री आर श्रीधरहाई हिलर्स के अनेक संस्कृतिकर्मी (गिरीश सिंह बिष्टगिरधारी सिंह रावतदिनेश बिजलवाण, कुसुम बिष्ट, संयोगिता पन्त-ध्यानी, कुसुम चौहान, महेंद्र सिंह रावत, धीरज कोठियाल इत्यादि)नाट्य-निर्देशक डॉ. सुवर्ण रावतएक्टिविस्ट राजेन्द्र रतूड़ीसंस्कृतिकर्मी किशोर शर्माअनेक पत्रकार (अनंत मित्तल, कृष्णकान्त उनियालसुनील नेगीदाताराम चमोली, उमाकांत लखेड़ा, व्योमेश जुगरान, नीरज जोशी और विनोद ढौंडियाल), लेखक (रमेश घिल्डियाल और मदन थपलियाल), संस्कृतिकर्मी (चन्दन डांगीहेम पन्तकेएन पांडेय) इत्यादि.
इनमें से अधिकतर ने धस्मानाजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला और कहा कि उनके कार्य को आगे ले जाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.सुरेश नौटियाल ने उनकी स्मृति में एक ट्रस्ट बनाकर उनकी रचनाओं को छापनेउनकी पुस्तकों की लाइब्रेरी बनाने और उनके कृतित्व को आगे बढाने का सुझाव दिया.
धस्माना जी का जन्म अप्रैल 1937 को गढ़वाल जनपद के एकेश्वर ब्लॉक में बग्याली ग्राम में पंडित चंडीप्रसाद धस्माना और कलावती देवीजी के घर मेंहुआ था. उन्होंने स्नातकोत्तर शिक्षा और पत्रकारिता तथा जन-संपर्क में में डिप्लोमा किया था. वर्ष 1955 से ही हिंदी कविताओं की रचना आरंभ की. उनका कविता-संग्रह “परिवलय” कविता को निस्संदेह एक नया आयाम देता है और कविता को वैज्ञानिकता के साथ समझने की दृष्टि भी देता है.
साथ के दशक से वह गढ़वाली नाट्य-क्षेत्र में उतारे और जीवन-पर्यंत उसमें रमे रहे. अर्धग्रामेश्वर” सहित अनेक महत्वपूर्ण नाटक उन्होंने लिखे तथा गढ़वाली भाषा के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान किया. दिल्ली में जागर और दि हाई हिलर्स ग्रुप जैसी नाट्य-संस्थाओं के साथ उनका लंबा साथ रहा.
वह एक समय में गढ़वाल हितैषिणी सभा दिल्ली के अध्यक्ष भी रहे उत्तराखंड पीयूसीएल के अध्यक्ष भी रहे. उत्तराखंडी अधिकारियों की संस्था उत्तरायण के भी वह पदाधिकारी रहे और इस संस्था की अनेक महत्वपूर्ण स्मारिकाओं का संपादन भी उन्होंने किया. उत्तराखंड के विभिन्न पक्षों पर एक अंग्रेजी पुस्तक का भी उन्होंने संपादन किया.
उत्तराखंड राज्य आन्दोलन सहित क्षेत्र के सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा. उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के गठन और उसे राजनीतिक दिशा देने में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका रही. इस पार्टी का संविधान और नीतिपत्र बनाने वाली समिति के भी वह सदस्य रहे.
रंगकर्मराजनीतिसमाजसेवाघुमक्कड़ीग्राम-विकाससाहित्य-संस्कृतिलोक संचित ज्ञानगांधी-दर्शनपत्रकारिता-मीडियामानवाधिकार इत्यादि क्षेत्रों में उनकी गहरी रुचि थी और इन क्षेत्रों में उनका योगदान भी महत्वपूर्ण रहा.
सतत स्वाध्यायघुमक्कड़ी और जन-संपर्क से ज्ञान और अनुभव अर्जन उन्हें बहुत पसंद थे. उनका सन्देश था कि अपने जीवन का कुछ समय अन्य के लिए भी जिया जाना चाहिए.
संक्षेप में इतना ही कि उनके साथ लोगों के लाख मतभेद रहे हों, पर उनका जाना समाज और सामाजिकता के लिए, साहित्य के लिए, रंगकर्म के लिए, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक राजनीति के लिए, मानवाधिकारों और पारिस्थितिक मूल्यों के लिए बहुत बड़ी क्षति हैं. सच में उनके निधन से उत्तराखंड के संदर्भ में एक यूग का अवसान हो गया है!

Thursday, February 8, 2018

चन्द्र सिंह राही: उत्तराखण्ड की एक सांस्कृतिक थाती

(स्व० चन्द्र सिंह राही जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, वह किसी बोली भाषा से हटकर पूरे उत्तराखण्ड के ग्याता और लोककर्मी थे। दिनांक १० जनवरी को उनकी पुण्य तिथि पर याद कर रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार श्री चारु तिवारी जी)
रात के साढ़े बारह बजे उनका फोन आया। बोले, ‘त्याड़ज्यू सै गै छा हो?’ एक बार और फोन आया। मैंने आंखें मलते हुये फोन उठाया। सुबह के चार बजे थे। बाले- ‘त्याड़ज्यू उठ गै छा हो।’ उनका फोन कभी भी आ सकता था। कोई औपचारिकता नहीं। मुझे भी कभी उनके वेवक्त फोन आने पर झुझंलाहट नहीं हुई। अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट स्थित मेरे गांव तक वे आये। मेरे पिताजी को वे बाद तक याद करते रहे। घर में जब आते तो बच्चों के लिये युद्ध का मैदान तैयार हो जाता। वे ‘बुड्डे’ की कुमाउनी वार से अपने को बचाने की कोशिश करते। पहली मुलाकात में पहला सवाल यही होता कि- ‘त्वैकें पहाड़ि बुलार्न औछों कि ना?’ मेरी पत्नी किरण तो उनके साथ धारा प्रवाह कुमाउनी बोलती। पानी के बारे में उनका आग्रह था कि खौलकर रखा पानी ही पीयेंगे। हमारी श्रीमती जी हर बार इस बात का ध्यान रखती और उनको आश्वस्त कराती कि यह पानी खौलकर ठंडा किया है। वे खुश रहते। मेरी दोनों बेटियां उन्हें बहुत पसंद करती थी। उन्हें ‘स्मार्ट बुड्डा’ कहती। जब भी आते बच्चों को बहुत स्नेह करते। हमारे आॅफिस में भी उनका ‘आतंक’ छाया रहता। पहाड़ी बोलनी जिसे नहीं आती उसकी शामत आ जाती। फिर उनका पूरा भाषण सुनना ही पड़ता था। जनवरी 2016 में लोक के मर्मज्ञ चन्द्रसिंह ‘राही’ जी अस्वस्थ हो गये थे। इस दौरान कई अस्पतालों में उनका इलाज चलता रहा। लेकिन बहुत प्रयासों के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हो पाये और 10 जनवरी 2016 को इस दुनिया को अलविदा कह गये। उनके जाने का मतलब है लोक विधाओं के एक युग का अवसान। उनके गीत हमारे बीच रहेंगे। सदियों तक। हमेशा-हमेशा। उनकी तीसरी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’ का मतलब था, सभी लोक विधाओं का एक साथ चलना। उनको समझना। उस अन्र्तदृष्टि को भी जो लोक के भीतर समायी है। वे लोक विधाओं का एक चलता-फिरता ज्ञानकोश थे। वे लोक धुनों के धनी थे। प्रकृति प्रदत्त आवाज के बादशाह भी। उनके गीतों में प्रकृति का माधुर्य है। संवेदनाएं हैं। भाषा का सौंदर्य है। बिम्ब जैसे उनके गीतों की विशेषता। शब्दों का बड़ा संसार है। उनके पास लोक की पुरानी विरासत थी। नये सृजन के लिये खुले द्वार भी। लोक में बिखरी बहुत सारी चीजों को समेटने की दृष्टि भी। वे लोक गायक थे। गीत लिखते और गाते थे। संगीत से उनका अटूट रिश्ता रहा। लोक वाद्यों पर उनका अधिकार था। कोई लोकवाद्य ऐसा नहीं है जिसे उन्होंने न बजाया हो। वे उत्तराखंड के हर लोकवाद्य पर अधिकारपूर्वक बोल सकते थे। ‘राही’ जी लोक विधाओं के अन्वेषी थे। लगभग तीन हजार से अधिक लुप्त होते लोकगीतों का संकलन उनके पास था। गढ़वाली और कुमाउंनी भाषा पर उनका समान अधिकार था। इन सबके साथ ‘राही’ जी हमारी सांस्कृतिक धरोहर के सबसे प्रबल पहरेदार थे। एक सरल इंसान। दरअसल ‘राही’ जी की अपनी खूबियां थीं।
चन्द्रसिंह ‘राही’ जी से मुलाकात कब हुई यह कहना बहुत कठिन है। लगता था कि दशकों से एक-दूसरे को जानते थे। उम्र का इतना बड़ा फासला होने के बावजूद उन्होंने कभी उस अन्तर को प्रकट नहीं होने दिया। उनके साथ उस दौर में ज्यादा निकटता हो गयी जब मैं ‘जनपक्ष’ पत्रिका का संपादन कर रहा था। कभी भी, किसी भी समय उनका फोन आ सकता था। वह सुबह पांच बजे भी हो सकता था, रात के 12 बजे भी। बहुत आत्मीयता से वे कुमाउनी में बात करते थे। दो साल पहले अपने गृह क्षेत्र द्वाराहाट के कफड़ा में एक कार्यक्रम में शामिल होने गया। चन्द्रसिंह ‘राही’ भी साथ थे। पता चला कि वहां रामलीला भी हो रही है। आयोजकों ने कहा कि आप रामलीला का उद्घाटन कर दो। हमें भी रामलीला देखनी थी चले गये। लोगों को पता नहीं था कि मेरे साथ कौन हैं। मैंने मंच में जाकर घोषणा की कि रामलीला का उद्घाटन चन्द्रसिंह ‘राही’ करेंगे। और स्पष्ट करते हुए बताया कि ये वही ‘राही’ जी हैं जिन्होंने ‘सरग तारा जुनाली राता…’, ‘हिल मा चांदी को बटना…’, जैसे गीत गाये हैं। पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। रामलीला तो छोड़िये पहले गीतों की फरमाइश आ गयी। पुरानी पीढ़ी के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि सत्तर के दशक में जिस गायक को रेडियो पर सुना था उसे कभी सामने भी देख पायेंगे। ऊपर से धारा प्रवाह कुमाउनी बोलने से वे लोगों के चहेते बन गये। मैं उन्हें कई आयोजनों में अधिकारपूर्वक अपने साथ ले गया। वे जहां भी गये अपने गीतों से लोगों के दिलों में जगह बना आये। ‘राही’ जी को ‘जौनसार’ से लेकर ‘जौहार’ तक की लोक विधाओं में महारत हासिल था।
सत्तर का दशक। हम तब बहुत छोटे थे। दूरस्थ गांवों में मनोरंजन के कुछ ही साधन थे। रामलीला और स्थानीय स्तर पर लगने वाले मेले-ठेले। हमारे क्षेत्र में दो मेले लगते थे- ‘स्याल्दे-बिखौती’ और ‘बग्वाल मेला।’ चैत-बैसाख में रातभर गांवों में झोड़े-चांचरी की धूम रहती। गांव से दूर जंगल को जाती महिलाओं की लंबी कतारें ‘झोड़े’ के रंग में अपना रास्ता तय करती थी। उनके लिये यह लोकगीत जीवन का संगीत था। आगे बढ़ने की ताकत, सहयोग और सहकारिता के साथ चलने का दर्शन भी। गांव में रेडियो थे, लेकिन कुछ ही घरों में। कुछ मिलट्री वाले अपने घर के बाहर ऊंची आवाज में रेडियो लगा देते। हमारे घर में भी रेडियो था। मेरे पिताजी बग्वालीपोखर इंटर कालेज में प्रधानाचार्य थे। हम लोग स्कूल में बने आवास में ही रहते थे। मेरी ईजा दो मंजिले मकान की बड़ी सी खिड़की में बैठकर शाम को रेडियो लगाती। उसमें आकाशवाणी लखनऊ, नजीबाबाद, दिल्ली और रामपुर से गीत प्रसारित होते। ‘गिरि गुंजन’, ‘उत्तरायण’ और दिल्ली से प्रसारित होने वाला ‘फौजियों के लिये फरमाइशी कार्यक्रम’ हमारे लिये दिलचस्प थे। ‘उत्तरायण’ जब शुरू होता तो इससे पहले एक गीत की धुन आती थी- ‘आगे कदम… आगे कदम… आगे कदम…।’ इसके शुरू होते ही हम अपने सारे खेल छोड़कर भागकर घर आ जाते। इस कार्यक्रम को सुनने। ईजा की ड्यूटी थी कि जब ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता तो वह हमें ‘धात’ (जोर से आवाज) लगाती। किसी वजह से हमें इस कार्यक्रम की सूचना नहीं दे पाती तो उनके लिये नई मुसीबत खड़़ी हो जाती। हम ईजा से जिद करते कि फिर से उसी कार्यक्रम को लगाये। बेचारी ईजा क्या कर सकती थी। कार्यक्रम दुबारा नहीं आ सकता था। बहुत सारे गीत थे। कुमाउनी और गढ़वाली में। कुछ गीत आज भी कानों में उसी तरह गूंजते हैं। ‘छाना बिलोरी झन दिया बोज्यू, लागनी बिलोरी का घामा…’, ‘गरुडा भरती कौसानी ट्रेनिंगा, देशा का लिजिया लडैं में मरुला…’, ‘बाटि लागी बराता चेली भैट डोलिमा…’, ‘सरग तरा जुनाली राता, को सुणलो तेरी-मेरी बाता…’, ‘काली गंगा को कालो पाणी…’, ‘हिल मा चांदी को बटना…’, ‘रणहाटा नि जाण गजै सिंहा…’, ‘मेरी चदरी छूटि पछिना…,’ ‘रामगंगा तरै दे भागी, धुरफाटा मैं आपफी तरूलों…,’ ‘पार का भिड़ा कौ छै घस्यारी…’, ‘कमला की बोई बना दे रोटी, मेरी गाड़ी ल्हे गै छ पीपलाकोटी…’, ‘पारे भिड़ै की बंसती छोरी रूमा-झुम…’, ‘ओ परुआ बोज्यू चप्पल कै ल्याछा यस…’, ‘ओ भिना कसिके जानूं द्वारहाटा…,’ ‘धारमक लालमणि दै खै जा पात मा…।’ और भी बहुत सारे गीत थे। ‘न्यौली’, ‘छपेली’, ‘बाजूबंद’, झोड़े-झुमेलो’, ‘भगनोल’, ‘ऋतुरैण’ आदि जिन्होंने हमें लोकगीतों की एक समझ दी। इन गीतों के साथ हम बड़े हुए और इन्हें सुनकर ही हमने रामलीलाओं और स्कूल की बाल-सभाओं में खड़ा होना सीखा। यही लोकगीत हमारी चेतना के आधार रहे।
हम लोग जब दुनियादारी को समझने लगे तो इन लोकगीतों का मर्म भी समझ में आने लगा। यह भी कि बहुत सहजता से कह दी गयी बातें हमारे जीवन की संवेदनाओं से कितने गहरे तक जुड़ी हैं। इन गीतों में हमारा पूरा समाज चलता है। इन गीतों से हमने एक-दूसरे के दर्द भी जाने और दर्द के साथ जीना भी सीखा। कितनी सारी अन्तर्कथायें हैं इन गीतों के भीतर। हमारी अन्तर्कथायें। लोक की, लोक में रहने वाले समाज की। सबकी सामूहिक। व्यक्तिगत तो हो ही नहीं सकती। होती तो यह आवाज लोक से नहीं निकलती। जंगल के एकान्त से निकलने वाली ‘न्यौली’ हो या गांव से निकलने वाला ‘भगनौला’, सामूहिकता में पिरोई ‘झौड़े-झुमैलो’ की रंगत हो या ‘खुदेड़ गीत’, हमारे पारंपरिक ‘ऋतुगीत’ हों या ‘मांगलगीत’, पांडव गीत-नृत्यों से लेकर ‘रम्माण’ तक, घस्यारी के गीतों से लेकर बद्दी गीत, थड़िया, चैंफला, चांचरी, बाजूबंद, छूड़ा, जागर, लोक गाथाओं तक।
लोकवाद्य ढोल, नगाड़ा, बांसुरी, जौल्यां-मुरली, नागफनी, रणसिंगा, डफली, हुड़का, शंख, घंट, इकतारा, दोतारा, सारंगी, बिणाई, खंजरी, तुरही, भंकोरा, डौंर, थाली, डमरू, अलगोजा, मशकबीन, घुंघरू, खड़ताल, घानी, चिमटा, मजीरा, कंसेरी, झांझ तक लोक विधाओं का इतना बड़ा संसार फैला है, जिसका हर छोर हमारे अन्तर्मन को समेटे है। जितना बढ़ेगा हमारी पूरी दुनिया इसमें समा जायेगी। इसमें व्यापकता है। आत्मसात करने की शक्ति और अभिव्यक्ति की कला भी। इसलिये इसे व्यक्त करने की कितनी विधायें हैं। लोक है तो उसमें संगीत होगा। संगीत है तो जीवन होगा। उसके विभिन्न रंग होंगे। दुख के, सुख के। प्रेम और विछोह के। खुद-बाडुली के। उत्साह-उमंग के। चेतना के। कभी विद्रोह-प्रतिकार के भी। लोक से निकली हर आवाज ने समाज को प्रतिबिंबित करते सामूहिक गीतों की जो पंरपरा बनायी उसने हमें मिलकर आवाज उठाना भी सिखाया। यह आवाज तब तक निकलती रहेगी जब तक गांव बचा रहेगा। यही लोकगीतों की परंपरा के जीवित रहने की शर्त है।
तीन-साढ़े तीन दशक बाद उस ओर लौटना सुखद अतीत की स्मृतियों में खोना है। ये स्मृतियां ऐसे समय में और जीवंत हो उठती हैं जब हम लोक विधाओं को बचाने की चिंता में हैं। इस तरह की चिंता बेवजह नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि संचार और तकनीक के विकास के साथ चीजें बदलती हैं। लोक विधाओं के साथ भी यह बात लागू होती है। लोक में समय के साथ कई चीजें जुड़ती हैं, और कई चीजें बाहर भी होती हैं। इसलिये हर बदलाव को सार्थक रूप से लेना ही अपनी विधाओं को विस्तार देना होता है। शर्त एक ही है कि इस बदलाव में लोक की आत्मा नहीं मरनी चाहिये। जब हम लोक विधाओं पर बात करेंगे तो स्वाभाविक रूप से लोक के संरक्षण और संवर्धन में लगे लोगों की बात भी होगी। यह अलग बात है कि समय के साथ लोक विधाओं के सामने संकट है। सच यह भी है कि लोक विधाओं को जानने-समझने का एक नया दौर भी शुरू हुआ है। अपनी जड़ों की ओर लौटने को आतुर नई पीढ़ी ने संचार माध्यमों का सही उपयोग कर हमारी पुरानी विरासत को इंटरनेट तक पहुंचा दिया है। अब हमारे लोक का दायरा बढ़ा है। कई ऐसे पुराने गीत हैं जो आपको इंटरनेट पर मिल जायेंगे। यह भी बदलाव का एक सार्थक मुकाम है। इससे अपनी विधाओं पर नये प्रयोग का रास्ता भी निकला है।
लोक विधाओं पर बहुत सारे लोगों ने काम किया है। आकाशवाणी के जिन कार्यक्रमों का जिक्र किया गया है उनमें लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी का विशेष योगदान रहा है। उन्होंने लोक की अभिव्यक्ति का जो व्यापक मंच तैयार किया उसकी नींव पर हमारे गीत-संगीत की बहुत सारी प्रतिभाओं ने अपना रचना-संसार खड़ा किया। आदि कवि गुमानी, मौलाराम, गौर्दा, गोपीदास, कृष्ण पांडे, सत्यशरण रतूड़ी, शिवदत्त सती, मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल साह, नईमा खान, लेनिन पंत, रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ के बाद घनश्याम सैलानी, डा. गोबिन्द चातक, डा. शिवानन्द नौटियाल, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, मोहनलाल बाबुलकर, अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, रतनसिंह जौनसारी, शेरदा ‘अनपढ़’, गोपालबाबू गोस्वामी, बीना तिवारी, चन्द्रकला, मोहन सिंह रीठागाड़ी, झूसिया दमाई, कबूतरी देवी, बसन्ती बिष्ट, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’, नरेन्द्रसिंह नेगी, हीरासिंह राणा आदि ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है। लोक पंरपरा को आगे ले जाने वाली पीढ़ी भी तैयार है। जागर शैली और ढोल-दमाऊ को विश्व पटल तक पहुंचाने वाले जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण हैं तो जौनसार से रेशमा शाह, जागर शैली की हेमा करासी नेगी हैं तो विशुद्ध लोक की आवाज लिये ‘न्यौली’ गाने वाली आशा नेगी भी। अभी लोकधुनों के प्रयोगधर्मी किशन महीपाल और रजनीश सेमवाल से भी लोगों का परिचय हुआ है। अमित सागर ने राही जी की चेत्योली गाकर ‘राही’ जी को सही श्रद्धांजलि दी है। लोक पर ‘पांउवाज’ के प्रयोग भी हमें पुरानी धाती को नये संदर्भों में समझने का रास्ता निकाल रही हैं।
लोक विधाओं पर संक्षिप्त में इतनी बातें हमारे लोक की समृद्धि को तो बताती हैं, लेकिन इससे बात पूरी नहीं होती। इस पर पूरी चर्चा भी कर लें तो समाप्त नहीं होगी। यह बात शुरू ही तब हो पायेगी जब इसमें लोक विधाओं के साथ जीने वाले एक व्यक्तित्व का नाम जोड़ा जायेेगा। वह नाम है- स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’। अब ‘राही’ जी हमारे बीच में नहीं हैं। आज उनकी तीसरी पुण्यतिथि है। पिछले तीन साल से उनका ‘वेवक्त’ फोन नहीं आया- ‘त्याडज्यू, सै गै छा हो?’ कैसे सो सकते हैं। आपकी चेतना के गीत हमारे बीच में हैं। हमेशा चेतन करते रहेंगे। आपके गीत, आपका व्यक्तित्व हमें हमेशा जगाये रखेगा। वैसे ही जैसे रात के साढ़े बारह बजे और सुबह के चार बजे। आपको पूरे समाज की ओर से कृतज्ञापूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि।
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आणां' या 'पखाणा

हमारे गांव के मशहूर ढोलवादक थे गोवर्धन भैजी। ढोलवादन के अलावा उन्हें हम 'आणां' और 'पखाणा' के लिये भी याद करते हैं। वह हर बात पर कोई नया 'ूर जानते होंगे। उन्हें यहां साझा करें। मैं यहां पर गढ़वाली के कुछ 'आणां—पखाणा' दे रहा हूं।
आणां' या 'पखाणा' फिट करने में माहिर थे। आणां और पखाणा मतलब पहेलियां और कहावतें, लोकोक्तियां। मुझे गढ़वाली के कुछ आणां—पखाणा याद हैं, लेकिन जगह, स्थान और बोली के हिसाब से इनमें बदलाव भी हो जाता है। आप उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जोहारी, भोटिया या किसी अन्य लोकभाषा से जुड़े हों तब भी अपने यहां की पहेलियों और लोकोक्तियों को आप जर
सूंगरूं दगड़ मांगळ — अज्ञानियों के साथ बहस
बिना मर्यां स्वर्ग नि जयेंदू — खुद काम किये बिना काम संपन्न नहीं होना
भैंसा क मुख पर फ्यूंल्या फूल — ऊंट के मुंह में जीरा
चोरो मन चंडाल — चोर की दाढ़ी में तिनका
जनि मयेड़ि वनि जयेड़ि — जैसा बाप वैसा बेटा
म्यारा बळदन उथगा बायी नी, जथगा खायी — कम काम का अधिक बखान
जैकु बाबू रिक्कन खायी, वू काळा मुड देखि भि डरद —दूध का जला छांछ भी फूंक फूंककर पीता है
अपणा गिच्चै बौराण — अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना
औता तैं धन प्यारू — निसंतान को धन का मोह होना
भीतर जान्द न भैर आन्द, छजा माँ बैठी कि खुट्टा हिलान्द — निकम्मा
गरूड़ूवा घिंडुड़ा — अच्छे माता पिता की नालायक संतान
जोगि भाजी हगणै बटि — जिसके पास बहुत कम साधन हों
अ खुंड म्यार मुंड — खुद ही परेशानी मोल लेना
बड़ा गोरू बड़ा बछरा — शेरों का शेर
चोर गीज़ काखड़ी बटेक अर्र बाघ गीज़ बकरी बटेक — छोटी चोरी से बड़ी चोरी सीखना
जादा खाणौ जोगि ह्वै पैला बासा भुकि रै — अत्या​धिक लालच में खुद का नुकसान करना
कख राजा की राणी कख मंगतू की काणी — जमीन आसमान का अंतर
बांज बियाई अर गुबडि ह्वाई — कहना कुछ और करना कुछ
तिमला भि खतेन अर नांगा भि देखेन — इज्जत भी गयी और नुकसान भी हुआ
बुगलै बंदूक अर खिन्नै तलवार — दिखावा करना
छुईं लगान्द बल डाला टुक्कू कि — बेसिरपैर की बातें करना
अप्फु पर लपडयूं मोल हैका पर लपोडणू — खुद दलदल में फंसना और दूसरे को भी घसीटना
काणो क्या मंगद, बस द्वी आँखा — अंधे को क्या चाहिए दो आंखें
तुमरै भुज्याँ भट्ट चन छन — कर्मों का फल ?
दानै बछड़ा दांत नि गिणेंदा — मुफ्त के सामान में मीनमेख नहीं निकाली जाती
भैंसों गुस्सा मकड़ा पर — किसी शक्तिशाली के कृत्य की सजा कमजोर को देना
बोडी पैली गिताण छै अब त नाति​ जि व्हेगे — करैला और ऊपर से नीम चढ़ा
अड़ाई पड़ाई जाट सोळा दुनि आट — मूर्ख की कुछ समझ में नहीं आता
......धर्मेन्द्र पंत

105 साल पुराना है गढ़वाली रंगमंच, 38 साल पुराना है उत्तराखंडी सिनेमा मनोज इष्टवाल

 ऋतुओं के बदलाव रहे हों या फिर खेतों का हल जोत, फसल कटाई बुवाई, विवाह, उत्सव,जन्म संस्कार, त्यौहार,मेला, मौसम परिवर्तन, स्वांग, बन्यास,कौथिग, थौळ इत्यादि उत्तराखंडी लोक में प्रचलित गीत जिन्हें हम लोकगीत के नाम से जानते हैं व उनके साथ किये जाने वाले लोकनृत्यों की विविधताएं हजारों साल पुरानी मानी जाती हैं। भले ही राजशाही के दौर में यह विद्या पातरोँ (आधुनिक में वेश्याओं/या इस से सम्बंधित लोकलुभावन अंग प्रदर्शनों) के द्वारा राज महलों में प्रचलित नृत्य रहे हों। लेकिन ठेठ इसके उलट विवाह समारोहों में बादी जाति व आवजी जाति का चैतवाली गायन नृत्य प्रसिद्ध रहा है। जिनमे लांग व स्वांग दोनों ही महत्वपूर्ण रहे। लेकिन ग्रामीण परिवेश में सामूहिक लोकगीत, लोकनृत्यों का प्रचलन कालान्तर से वर्तमान परिवेश तक यथावत चलता आ रहा है, जबकि पातर स्वांग इत्यादि समाप्ति पर है और इसमें शक नहीं कि लोकगीतों व लोकनृत्यों पर भी इस काल में खतरा मंडरा रहा है।
गवाई रामलीला, कृष्ण लीला, हरीश चन्द्र तारामती, रूप- बसन्त, अभिमंयुं चरित्र, भक्त प्रहलाद सहित अनेकोनेक नाटक गढ़वाली में पूर्व से मंचित किये गए लेकिन ऐतिहासिक खोजों के दौर की अगर देखा जाय तो सर्वप्रथम ग्राम -खैड (मवालस्यु) पौड़ी गढ़वाल में जन्मे भवानी दत्त थपलियाल द्धारा लिखित या रचित नाटक “जय विजय” का मंचन सन 1911 में किया गया। जो लगातार कई वर्षों तक होता रहा । फिर उन्होंने सन 1938 में प्रह्लाद नाटक लिखा। गढ़वाली बोली में लिखे जाने वाले ब्रिटिश काल के नाटकों की यह प्रथम कड़ी थी। इसी दौर में इनके द्वारा ढोल सागर भी लिखा गया। जबकि 1932 में बिशम्बर दत्त उनियाल द्वारा गढ़वाली नाटक ” बसंती” 1934 में ईश्वरी दत्त सुयाल द्वारा “परिवर्तन” 1936 में बाणीभूषण का ” प्रेम-सुमन” इत्यादि नाटकों का दौर शुरू हुआ जो देश भर के विभिन्न मंचों में गढ़वाली समुदाय के रंगमंचीय कलाकारों द्वारा प्रदर्शित किए गए। लेकिन भवानी दत्त थपलियाल के बाद प्रोफेसर पांथरी का नाटक ” भूतों की खोह” तथा “अंध:पतन” नाटक भी उल्लेख में आये।
फिर तो जैसे नाटकों का स्वर्णिम दौर शुरू हुआ हो। कवि एवं अभिनेता जीत सिंह नेगी के नाटक ” भारी भूल” तथा “मलेथा की गूल” दिनेश पहाड़ी का “जुन्याली रात” केशव ध्यानी का “भोलू सौकार”, गिरधारी लाल थपलियाल कंकाल का ” इन नि चैन्द”, मोहन थपलियाल का “खाड़ू लापता”, मदन मोहन का “पुरिया नैथानी”, अबोधबंधू बहुगुणा का ” माई का लाल” तथा “अंतिम गढ़”, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश का एकांकी नाटक “नौबत” डॉ. गोबिंद चातक का एकांकी संग्रह ” जंगली फूल” गोबिंद राम पोखरियाल का “बंटवारों” बद्रीश पोखरियाल की नृत्य नाटिका ” शकुंतला” इत्यादि का मंचन मुम्बई,दिल्ली, लखनऊ, राजस्थान के विभिन्न शहरो, मेरठ, चंडीगढ़, पौड़ी देहरादून कोटद्वार सहित देश के कई बड़े महानगरों में होता रहा। फिर नये दौर में जीत सिंह नेगी का ” वीरवधु देवकी”, “खैट की आंछरी” सहित कन्हैया लाल डंडरियाल, विश्व मोहन बडोला, राजेंद्र धस्माना, स्वरुप ढौण्डियाल, रामेश्वर गौड़, दिनेश पहाड़ी इत्यादि के नाम चर्चित रहे । 1986 में बद्रीश पोखरियाल द्वारा रचित नृत्य नाटिका का मनोज इष्टवाल द्वारा सफल निर्देशन किया गया जिसका मंचन दिल्ली में करने के पश्चात् ” शकुंतला नृत्य नाटिका” नाम से इसका प्रसारण लखनऊ दूरदर्शन से भी किया गया। इनमें ऐसे कई और नाम भी हैं जो पिछली सदी के नाटककारों में शामिल रहे हैं।
सन 1978 में गढ़वाली सिनेमा का स्वर्णिम दौर लौटा ।
विकासखंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल के मिरचोड़ा गॉव निवासी पारासर गौड़ द्वारा ” जग्वाल” नामक फिल्म को रुपहले परदे पर लाया गया। और इसी फिल्म के माध्यम से वे गढ़वाली ही नहीं बल्कि उत्तराखण्डी सिनेमा के पितामह कहलाये। यह फिल्म सुपरहिट हुई। फिर जैसे गढ़वाली फिल्मों के निर्माण की बाढ़ आई हो एक के बाद एक फिल्म बननी शुरू हुई जिनमे “कवि सुख कवि दुःख”, कौथिग, उदन्कार, प्यारु रुमाल, बेटी-ब्वारी, घरजवैं, फ्योंली, बंटवारु, रैबार, बिरणी बेटी, सात फेरु, आस, मेघा, ब्वारी होत इनी, सतमंगल्या, गढ़ रामी बौराणी इत्यादि परदे की व् दर्जन भर वीडिओ फिल्मों का पिछली सदी में निर्माण हुआ, जिनमे तरुण धस्माना द्वारा साहसिक कदम उठाकर गढ़वाली पटकथा का हिंदी रूपांतर कर हिंदी फिल्म “हिमालय के आँचल में” बनाई जिसकी पटकथा गढ़-कुमाऊँ को जोड़ती नजर आई। लगभग डेढ़ दर्जन से ज्यादा फिल्में आज भी डिब्बा बंद है क्योंकि धीरे धीरे गढ़वाली सिनेमा से यहाँ के जनमानस का मोह भंग होने लगा।
फिर कई वर्षों की शान्ति के बाद अनुज जोशी द्वारा साहसिक कदम उठाकर उत्तराखण्ड आंदोलन का विषय उठाकर फिल्म बनाई गयी जो इस सदी की ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद की पहली फिल्म हुई। तब से अब तक यह दौर बेहद धीमा था लेकिन विगत दो वर्षों से फिर इसमें तेजी आई है। अब उत्तराखण्ड फिल्म विकास परिषद् को प्रारूप मिल तो गया है लेकिन देखना यह होगा क़ि यह परिषद् क्या गुल खिलायेगी।

मेलोडी म्यूजिक किंग - नरेन्द्र सिंह नेगी

गढ़वाली गीत संगीत के शिखर गीत पुरुष नरेंद्र सिंह नेगी जी गीत लेखन , म्यूजिक कम्पोजर और गीत गायन तीनो ही विधाओं में पारंगत है पर गहराई से आकलन किया जाए तो उनके अन्दर जो गुण सर्वश्रेष्ठ है वो संगीत को कम्पोजर का यूँ तो नेगी जी मजे हुए गीतकार भी है उन्होंने बेहतरीन से बेहतरीन गीत लिखे है पर मैं कही बार गहराई से सोचता हूं तो ये पाता हूं नेगी जी गीत लेखन और गायन के मुकाबले संगीत कम्मोजर बहुत विरले है अब नेगीजी अपना लिखा गीत गाये या किसी दूसरे गीतकार का लिखा अगर उन्होंने म्यूजिक कम्पोज किया तो वो गीत बिल्कुल नरेंद्र सिंह नेगी रंग हो जाता है फिर वो वीरेंद्र पँवार जी का लिखा सब्बी धाणी देहरादूण हो या देवी प्रसाद सेमवाल जी का लिखा तू दिखयन्दी जन जुन्याली हो या कन्हैयालाल डंडरियाल जी का लिखा गीत दादू मैं पर्वतों को वासी हो या भजन सिंह जी का लिखा गीत भयो दारू पेणी पिलाणी नि चैंदी इन सभी गीतकारों ने बढ़िया लिखा पर इनकी लिखे गीत में नरेंद्र सिंह नेगी ने जो धुन गढ़ी रंगदार तो गीत और भी रंगीन हो गए जैसे नन्दा राजजात के लोकगीतों पर नेगी जी ने अपना रचित संगीत गढ़ा तो गीत और मेलिडियस हो गए और यही नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की ताकत है उसमें उनका मेलोडियस संगीत , नरेंद्र सिंह नेगी एक बेहतरीन गीतकार है यह बात जगजाहिर है पर नरेंद्र सिंह नेगी में इतनी ताकत वो अपना लिखे गीत में धुन गढ़े या दूसरे गीतकार के लिखे गीत में उनके संगीत में किसी का भी गीत रच जाए वही मेलोडियस , नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की ताकत उनका संगीत ही रहा बेहतरीन गीत रचना में एक सरल सौम्य मेलोडियस संगीत और संगीत में इतनी सरलता की हर वो सुनने वाला श्रोता जिसको गाना नही भी आता वो भी बढ़ी सरलता से नेगी जी के गीत गा लेता है भले वो कैसे भी गाये पर हर कंठ में उनका गीत होता है यही कारण नरेंद्र सिंह नेगी लोकप्रिय गायक भले उनकी आवाज गोपाल बाबू गोस्वामी केशव दास अनुरागी जीत सिंह नेगी इन सभी लोक स्तम्भ गायकों की तरह सुरीली आवाज और क्लासिकल गायिकी न होने के बाद भी उनके गीतों की सरलता और बेहतरीन से बेहतरीन म्यूजिक कम्पोजिंग ने नरेंद्र सिंह नेगी जी को एक बेहतरीन गायक बनाया उनके गीतों की सरलता सौम्यता और मेलोडी ने उनको गढ़ का गौरव बनाया है ।
आभार : शैलेन्द्र जोशी - स्वतंत्र लेखक 

Monday, February 5, 2018

बड़े गयाक नए उभरते गायकों को मंच पर जगह नहीं देना चाहते - किशन महिपाल

हाल ही में मशहूर जागर लोक गायक द्वारा आज के दौर के युवा गायक को अपने मंच पर जगह नहीं दी कार्यक्रम आयोजको ने किशन महिपाल को अलग से अपनी प्रस्तुति देने के लिए आमंत्रित किया था लेकिन किशन महिपाल स्टेज के पीछे अपनी बारी का इंतजार करते रह गए l

 फेस बुक की एक पोस्ट पर किशन महिपाल ने अपना या दुखड़ा सुनाया l किशन महिपाल उत्तराखंड संगीत जगत में आज की पीढ़ी के बहुत ही चर्चित गायक हैं l उनके लोकगीत खासकर फ्योलडिया आज कल बहुत शुर्खियों में है l आज किशन महिपाल एक नामी लोकगायक हैं l 

उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास

उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास २०१३ तक                प्रस्तुतिकरण : भीष्म कुकरेती                     ( यह लेख उत्तराखंडी फिल्...