Thursday, February 8, 2018

105 साल पुराना है गढ़वाली रंगमंच, 38 साल पुराना है उत्तराखंडी सिनेमा मनोज इष्टवाल

 ऋतुओं के बदलाव रहे हों या फिर खेतों का हल जोत, फसल कटाई बुवाई, विवाह, उत्सव,जन्म संस्कार, त्यौहार,मेला, मौसम परिवर्तन, स्वांग, बन्यास,कौथिग, थौळ इत्यादि उत्तराखंडी लोक में प्रचलित गीत जिन्हें हम लोकगीत के नाम से जानते हैं व उनके साथ किये जाने वाले लोकनृत्यों की विविधताएं हजारों साल पुरानी मानी जाती हैं। भले ही राजशाही के दौर में यह विद्या पातरोँ (आधुनिक में वेश्याओं/या इस से सम्बंधित लोकलुभावन अंग प्रदर्शनों) के द्वारा राज महलों में प्रचलित नृत्य रहे हों। लेकिन ठेठ इसके उलट विवाह समारोहों में बादी जाति व आवजी जाति का चैतवाली गायन नृत्य प्रसिद्ध रहा है। जिनमे लांग व स्वांग दोनों ही महत्वपूर्ण रहे। लेकिन ग्रामीण परिवेश में सामूहिक लोकगीत, लोकनृत्यों का प्रचलन कालान्तर से वर्तमान परिवेश तक यथावत चलता आ रहा है, जबकि पातर स्वांग इत्यादि समाप्ति पर है और इसमें शक नहीं कि लोकगीतों व लोकनृत्यों पर भी इस काल में खतरा मंडरा रहा है।
गवाई रामलीला, कृष्ण लीला, हरीश चन्द्र तारामती, रूप- बसन्त, अभिमंयुं चरित्र, भक्त प्रहलाद सहित अनेकोनेक नाटक गढ़वाली में पूर्व से मंचित किये गए लेकिन ऐतिहासिक खोजों के दौर की अगर देखा जाय तो सर्वप्रथम ग्राम -खैड (मवालस्यु) पौड़ी गढ़वाल में जन्मे भवानी दत्त थपलियाल द्धारा लिखित या रचित नाटक “जय विजय” का मंचन सन 1911 में किया गया। जो लगातार कई वर्षों तक होता रहा । फिर उन्होंने सन 1938 में प्रह्लाद नाटक लिखा। गढ़वाली बोली में लिखे जाने वाले ब्रिटिश काल के नाटकों की यह प्रथम कड़ी थी। इसी दौर में इनके द्वारा ढोल सागर भी लिखा गया। जबकि 1932 में बिशम्बर दत्त उनियाल द्वारा गढ़वाली नाटक ” बसंती” 1934 में ईश्वरी दत्त सुयाल द्वारा “परिवर्तन” 1936 में बाणीभूषण का ” प्रेम-सुमन” इत्यादि नाटकों का दौर शुरू हुआ जो देश भर के विभिन्न मंचों में गढ़वाली समुदाय के रंगमंचीय कलाकारों द्वारा प्रदर्शित किए गए। लेकिन भवानी दत्त थपलियाल के बाद प्रोफेसर पांथरी का नाटक ” भूतों की खोह” तथा “अंध:पतन” नाटक भी उल्लेख में आये।
फिर तो जैसे नाटकों का स्वर्णिम दौर शुरू हुआ हो। कवि एवं अभिनेता जीत सिंह नेगी के नाटक ” भारी भूल” तथा “मलेथा की गूल” दिनेश पहाड़ी का “जुन्याली रात” केशव ध्यानी का “भोलू सौकार”, गिरधारी लाल थपलियाल कंकाल का ” इन नि चैन्द”, मोहन थपलियाल का “खाड़ू लापता”, मदन मोहन का “पुरिया नैथानी”, अबोधबंधू बहुगुणा का ” माई का लाल” तथा “अंतिम गढ़”, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश का एकांकी नाटक “नौबत” डॉ. गोबिंद चातक का एकांकी संग्रह ” जंगली फूल” गोबिंद राम पोखरियाल का “बंटवारों” बद्रीश पोखरियाल की नृत्य नाटिका ” शकुंतला” इत्यादि का मंचन मुम्बई,दिल्ली, लखनऊ, राजस्थान के विभिन्न शहरो, मेरठ, चंडीगढ़, पौड़ी देहरादून कोटद्वार सहित देश के कई बड़े महानगरों में होता रहा। फिर नये दौर में जीत सिंह नेगी का ” वीरवधु देवकी”, “खैट की आंछरी” सहित कन्हैया लाल डंडरियाल, विश्व मोहन बडोला, राजेंद्र धस्माना, स्वरुप ढौण्डियाल, रामेश्वर गौड़, दिनेश पहाड़ी इत्यादि के नाम चर्चित रहे । 1986 में बद्रीश पोखरियाल द्वारा रचित नृत्य नाटिका का मनोज इष्टवाल द्वारा सफल निर्देशन किया गया जिसका मंचन दिल्ली में करने के पश्चात् ” शकुंतला नृत्य नाटिका” नाम से इसका प्रसारण लखनऊ दूरदर्शन से भी किया गया। इनमें ऐसे कई और नाम भी हैं जो पिछली सदी के नाटककारों में शामिल रहे हैं।
सन 1978 में गढ़वाली सिनेमा का स्वर्णिम दौर लौटा ।
विकासखंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल के मिरचोड़ा गॉव निवासी पारासर गौड़ द्वारा ” जग्वाल” नामक फिल्म को रुपहले परदे पर लाया गया। और इसी फिल्म के माध्यम से वे गढ़वाली ही नहीं बल्कि उत्तराखण्डी सिनेमा के पितामह कहलाये। यह फिल्म सुपरहिट हुई। फिर जैसे गढ़वाली फिल्मों के निर्माण की बाढ़ आई हो एक के बाद एक फिल्म बननी शुरू हुई जिनमे “कवि सुख कवि दुःख”, कौथिग, उदन्कार, प्यारु रुमाल, बेटी-ब्वारी, घरजवैं, फ्योंली, बंटवारु, रैबार, बिरणी बेटी, सात फेरु, आस, मेघा, ब्वारी होत इनी, सतमंगल्या, गढ़ रामी बौराणी इत्यादि परदे की व् दर्जन भर वीडिओ फिल्मों का पिछली सदी में निर्माण हुआ, जिनमे तरुण धस्माना द्वारा साहसिक कदम उठाकर गढ़वाली पटकथा का हिंदी रूपांतर कर हिंदी फिल्म “हिमालय के आँचल में” बनाई जिसकी पटकथा गढ़-कुमाऊँ को जोड़ती नजर आई। लगभग डेढ़ दर्जन से ज्यादा फिल्में आज भी डिब्बा बंद है क्योंकि धीरे धीरे गढ़वाली सिनेमा से यहाँ के जनमानस का मोह भंग होने लगा।
फिर कई वर्षों की शान्ति के बाद अनुज जोशी द्वारा साहसिक कदम उठाकर उत्तराखण्ड आंदोलन का विषय उठाकर फिल्म बनाई गयी जो इस सदी की ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद की पहली फिल्म हुई। तब से अब तक यह दौर बेहद धीमा था लेकिन विगत दो वर्षों से फिर इसमें तेजी आई है। अब उत्तराखण्ड फिल्म विकास परिषद् को प्रारूप मिल तो गया है लेकिन देखना यह होगा क़ि यह परिषद् क्या गुल खिलायेगी।

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