Friday, April 12, 2019

उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास

उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास २०१३ तक

               प्रस्तुतिकरण : भीष्म कुकरेती
               
    ( यह लेख उत्तराखंडी फिल्मों के जनक श्री पाराशर गौड़ को समर्पित है )


(साभार, :मूल व सन्दर्भ  -मदन डुकलाण, चन्द्रकांत नेगी,  विपिन पंवार, एम . ऐस . मेहता व मेरा पहाड़ .कॉम की टीम, हिलीवुड पत्रिका)

              सन 1880 में मूवी कैमरा का अन्वेषण हुआ और तभी से मूवी फिल्मो का प्रचलन भी शुरू हुआ.फ्रांस की लुमिरे कम्पनी ने १८९५ में प्रथम मूवी फिल्म प्रदर्शित की। फिल्मों ने प्रत्येक समाज की कला, साहित्य, धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान , विज्ञान को प्रभावित किया. भारत में प्रथम मूक फिल्म दादा फाल्के कृत  'राजा हरिश्चंद्र ' है तो प्रथम वाक् फिल्म 'आलम आरा' है.
  फिल्म बनाने में कई तकनीकों, रचनाधर्मिताओं व  वित्तीय संसाधनों की संगठनात्मक जंक जोड़ की आवश्यकता ही नही पड़ती अपितु फिल्म निर्माताओं को सिनेमा प्रदर्शन के कई जटिल समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। यही कारण है कि गढ़वाली- कुमाउनी जैसी फ़िल्में मूवी चित्रों की आने के बाद भी सौ साल तक नही आ पाई। गढवाली-कुमाउनी जैसी भाषाओं की कुछ मूलभूत समस्याएं हैं -दर्शकों का एक जगह ना हो कर देस विदेशों में बिखरा होना, फिल्म निर्माण व्यय व फिल्म प्रदर्शन विक्री में जमीन आसमान का अन्तर। यह एक सास्त्व सत्य है कि गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म निर्माता को फिल्म लाभ हेतु नही अपितु सामाजिक कार्य हेतु फिल्म बनानी पड़ती है। यंहा तक कि उत्तराखंडी ऐलबम निर्माता घाटे में रहते हैं और तथाकथित वितरक ही मुनाफ़ा कमाते हैं। फिर सरकारी वित्तीय सहायता का कोई ठोस प्रवाधान ना तो उत्तर प्रदेस में  था ना ही कोई प्रेरणा दायक स्थानीय भाषाई फ़िल्म निर्माण नीति उत्तराखंड राज्य में है.  यही कारण है कि मूवी के अन्वेषण के सौ साल बाद ही प्रथम उत्तराखंडी फिल्म गढ़वाली भाषाई फिल्म 'जग्वाळ' सन १९८३ में ही प्रदर्शित हो सकी।  ५ मई  १९८३ का दिन उत्तराखंड के लिए एक यादगार दिन है जिस दिन प्रथम  उत्तराखंड फिल्म  'जग्वाळ' प्रदर्शित हुयी।   
 प्रथम उत्तराखंडी फिल्म गढ़वाली भाषाई फिल्म 'जग्वाळ' निर्माण व प्रदर्शन का पूरा श्रेय गढवाली के नाट्य  शिल्पी पाराशर गौड़ को जाता है.
 गढ़वाली की दूसरी  फिल्म बिन्देश नौडियाल की 'कभी सुख कभी दुःख ' सन १९८५ में प्रदर्शित हुयी थी।  यह फिल्म गढ़वाली चलचित्र इतिहास का एक काला अध्याय ही माना जायेगा। इस फिल्म में पहाड़ों मे डाकू घोड़ों में दौड़ना व भीभत्स  हास्य दिखाया  गया था।
१९८६ साल उत्तराखंडी फिल्मो के लिए प्रोत्साही वर्ष रहा है।
सन १९८६ में मुंबई के उद्यमी विशेश्वर नौटियाल द्वारा निर्मित , तरन तारण के निर्देशन में 'घर जंवै' फिलम बौण। यह  फिल्म कई मायनों में एक सफल फिल्म मानी जाती है।
सन १९८६ में शिव नारायण रावत निर्मित और तुलसी घिमरे निर्देशित गढ़वाली फिल्म 'प्यारो रुमाल' प्रदर्शित हुयी।
इस साल जय देव शील निर्मित व चरण सिंह चौहान निर्देशित फिल्म 'कौथिक' दर्शकों को देखने मिली
इसी वर्ष बद्री आशा फिल्म्स के बैनर के तहत सुरेन्द्र बिष्ट की निर्मित व निर्देशित गढ़वाली फिल्म 'उदंकार' प्रदर्शित हुयी। स्मरण रहे कि सुरेन्द्र सिंह बिष्ट ने कई गढवाली वीडियो ऐल्बम भी निर्मित किये.

 उत्तराखंडी फिल्मों में सन १९ ८७ का अपना महत्व है इस साल कुमाउनी भाषा की प्रथम फिल्म जीवन बिष्ट निर्मित 'मेघा आ' प्रदर्शित हुयी। 'मेघा आ' का निर्देशन काका शर्मा का था।
सन १ ९ ९ ० में किशन  पटेल निर्मित सोनू पंवार दिग्दर्शित गढ़वाली फिल्म 'रैबार' प्रदर्शित हुयी।
सन १ ९ ९२ में सीताराम भट्ट निर्मित 'बंटवारो' गढ़वाली फिल्म दर्शकों के सामने आयी। 
उर्मि नेगी द्वारा निर्मित और चरण सिंह चौहान निर्देशित गढ़वाली फिल्म 'फ्यूंळी' सन १९९३ में रिलीज हुयी।
सन १९९६  में ग्वाल दम्पति ने चन्द्र ठाकुर के निर्देशन में 'बेटी' फिल्म निर्मित की।
सन १९९७ में नरेंद्र गुसाईं व नरेंद्र खन्ना रचित फिल्म 'चक्रचाळ' फिल्म रिलीज हुयी थी।
महावीर नेगी निर्देशित व सूर्य प्रकाश शर्मा निर्मित गढ़वाली  फिल्म 'ब्वारि ह्वाऊ त इनि ह्वाउ'  सन १९९८ में प्रदर्शित हुयी।
महावीर नेगी निर्देशन में  दूसरी फिल्म 'सत मंगऴया। भी बनी थी।
रामी बौराणी की प्रसिद्ध कथा-कविता पर आधारित सावित्री रावत और सुशिल बब्बर निर्देशित गढ़वाली फिल्म  'गढ़रामी बौराणी' ने सन २००१ दर्शकों को लुभाया।
२००२ में अविनाश पोखरियाल द्वारा  'किस्मत' निर्मित-प्रदर्शित गढ़वाली फिल्म  अपने समय की सबसे मंहगी फिल्म मानी जाती है।
बलविंदर निर्मित गढ़वाली फिल्म 'जीतू बगड्वाळ' सन  २००३ में रिलीज हुयी।
उत्तराखंड आन्दोलन के  रामपुर तिराहा काण्ड घटना पर आधारित बहु प्रचारित गढ़वाली फिल्म 'तेरी सौं' (२००३ )के  निर्माता अनिल जोशी है और निर्देशक अनुज जोशी।
आर्श  मलिक प्रोडक्सन ने 'चल कखि दूर जौला' गढ़वाली फिल्म  २००३ में प्रदर्शित की।
महेश्वरी फिल्म की 'औंसी की रात ' गढ़वाली फिल्म २००४ में रिलीज हुयी।
सन २००४ में उत्तरांचल फिल्म्स की प्रदर्शित गढ़वाली फिल्म 'मेरी गंगा होली त मीमु  आली' मे नरेंद्र सिंह नेगी ने गीतकार ओर संगीतकार की भूमिका निभायी।
सन २००४-२००५ में  उत्तरा कम्युनिकेसन के बैनर तले मुकेश धष्माना की गढ़वाली फिल्म 'मेरी प्यारी बोइ' प्रदर्शित हुइ। 
  हिंदी फिल्म की डब  की गयी  गढ़वाली फिल्म 'छोटी ब्वारी' सन २००४-२००५ में प्रदर्शित हुयी।
  कैलाश द्विवेदी निर्मित गढ़वाली फिल्म 'किस्मत अपणी अपणी' सन  २००५ में दर्शकों को देखने मिली।
 सन २००५ में ही गढ़वाली फिल्म 'संजोग' अंकिता आर्ट के बैनर तले रिलीज हई।
कमल मेहता निर्मित दूसरी कुमाउनी फिल्म  'चेली' सन २००६ में प्रदर्शित हुयी।
सन .२००७  में कुली बेगार प्रथा पर आधारित सुदर्शन शाह निर्मित कुमाउनी फिल्म 'मधुलि'  दर्शकों ने देखा।
 सन २००७ में ही भास्कर रावत निर्मित फिल्म 'अपुण बिराण' दर्शकों तक पंहुची।
सन् २००८ में अजय शर्मा निर्मित अनिल बिष्ट निर्देशित 'मेरो सुहाग' फिल्म आइ।
सन् २००८ में पाराशर गौड़  और कनाडा प्रवासी असवाल द्वारा निर्मित व श्रीस डोभाल द्वारा निर्देशित गढ़वाली फिल्म 'गौरा' प्रदर्शित हुयी।
सन् २००९ में माधवानंद भट्ट निर्मित व राजेश जोशी निर्देशित प्रथम उत्तराखंडी फिल्म (कुमाउनी व गढ़वाली मिश्रित भाषा) रिलीज हुयी। यह फिल्म अब तक की सबसे मंहगी फिल्म है।
 ब्रह्मानन्द छिमवाल , गोपाल उप्रेती व बद्री प्रसाद अन्थ्वाल द्वारा  निर्मित व राजेन्द्र बिष्ट निर्देशित कुमाउनी फिल्म 'याद तेरी ऐगे' सन् २००९ में रिलीज हुयी।
संतोष शाह निर्देशित व हीरा सिंह भाकुनी, वकुल रावत और खालिद द्वारा निर्मित  कुमाउनी फिल्म 'अभिमान' सन् २००९ में प्रदर्शित की गयी।
 सन् २०१०  में 'अनुज निर्देशित गढ़वाली फिल्म 'याद आली तेरी टीरी' ने दर्शकों की प्रशंसा  बटोरी

सन्२०१२ में अनुज जोशी निर्देशित 'मनस्वाग'  पर्यावरण व जंगली जानवरों की सुरक्षा पर उठानी वाली प्रशंशा योग्य फिम है। 
  'तीन आंखर' एक कुमाउनी हास्य फिल्म मानी जाती है

 फिल्म माध्यम अभिव्यक्ति हेतु एक अनूठा माध्यम है किन्तु धनाभाव व सरकारी अवहेलना के कारण फीचर फिल्म बनाना दुष्कर कार्य है। डीवीडी माध्यम ने कुमाऊनी व गढवाली फिल्म निर्माण को एक नया आयाम दिया। डीवीडी माध्यम ने कुमाऊनी व गढवाली फिल्म निर्माण को को एक नई गति दी। असंगठित उद्यम होने के कारण हमें सम्पूर्ण जानकारी मिलना कठिन ही है किन्तु इधर उधर से जुटायी  गयी सामग्री के अनुसार निम्न डीवीडी फिल्मों का उल्लेख आवश्यक है: 
गढ़वाली शोले प्रसिद्ध कालजयी फिल्म शोले की नकल है जिसके निर्माता अनिल जोशी हैं व निर्देशक अनुज जोशी।
गंगोत्री फिल्म निर्मित 'अब त खुलली रात' (२०१०)   के निर्देशक अनुज जोशी हैं।
अनिल जोशी निर्मित 'हंत्या' (२००५) गढ़वाली फिल्म का  निर्देशक अनुज जोशी है।
स्वप्निल फिल्म व अनिल जोशी निर्मित 'गट्टू' गढवाली फिल्म का निर्देशन मदन डुकलाण ने किया।
'क्या कन तब'  -कुलानद घनसाला रचित, अनुज जोशी  निर्देशित नाटक की  वीडियोकृत फिल्म सन्२००८ में रिलीज हुयी।
अनुज  जोशी निर्देशित 'गुल्लू' (२०१०)प्रथम  उत्तराखंडी  बाल फिल्म है।
  हिमालय आर्ट्स निर्मित 'घन्ना गिरगिट अर यमराज' (२०११ ) गढ़वाली हास्य फिल्म का निर्देशन अनुज जोशी ने किया।
हिमालय फिल्म्स निर्मित 'कबि त होलि सुबेर' गढवाली फिल्म को अनुज जोशी ने निर्देशित किया।
हिमालय फिल्म्स की गढवाली फिल्म 'गुन्दरू बन गया हीरो ' का निर्देशन अनुज जोशी द्वारा किया गया।
  गंगोत्री फिल्म निर्मित 'अब त खुलली रात' (२०१०) के निर्देशक अनुज जोशी हैं। 
 हिमालय फिल्म्स   प्रस्तुत 'कमली' (२०१२ )का निर्देशन अनुज जोशी ने किया।
हिमालय फिल्म निर्मित गढवाली फिल्म 'काफळ' (२०१२ )का निर्देशन अनुज जोशी का है।

प्रदीप भंडारी द्वारा निर्देशित निम्न फिल्म प्रकाश में आयीं हैं :
१- केका बाना
२- आज दो अभी दो
३- जिया की लाडली

महेश प्रकाश कृत गढ़वाली फ़िल्में इस प्रकार हैं
१२- तेरु मेरु साथ
3- फ्यूंळी जवान ह्वे गे'
४- तेरो मेरो साथ
५ मेरी प्यारी भौजी
६- प्रेम
७-अदालत
८-बौऴया भेजी
९- दुःख का कांडा सुख का फूल
१० - परदेस
११ -ब्यखुनी झांझी
१२ -एक माँ की जिकुडी

हेमंत शर्मा  का गढवाली फिल्मो के निर्माण व दिग्दर्शन में योगदान इस प्रकार है

 १ ब्यौ
२- प्यार जीत गे ना !
३-दगड्या
महेश भट ने निम्न गढवाली फ़िल्में बनाईं
१- नंदा की पैलि  जात
२-डांड्यूं कांठ्यूं मा
३- हिमालय की धाद 
हरेन्द्र गुसाईं प्रस्तुत 'नयी ब्योली फिल्म के निर्माता निर्देशक धीरज नेगी है
'भाग्यवान बेटी' फिल्म का   प्रस्तुतीकरण  चन्दन केस्सेट ने किया ।
जीवन रावत द्वारा निर्मित और राहुल बोरा निर्देशित फिल्म का नाम आश (कुमाउनी, २०१२ ) है।
इनके अतिरिक्त निम्न वीडिओ फिल्मो की भी जानकारी मिली है:
कुटुंब (1985) - कैलाश द्विवेदी निर्मित नागेन्द्र बिष्ट द्वारा निर्देशित यह फिल्म गढ़वाली की पहली वीडिओ फिल्म है।कैलास द्विवेदी के अनुसार यह फिल्म भारत की  पहली वीडिओ फिल्म  है
भजराम  हवलदार (ब्रिज रावत निर्देशित)
बड़ी माँ
मंगतू बौळया
बली बेदना
माया जाल
छम घुंघरू
घन्ना चालबाज
कलजुगी भगत भगवान
नन्दू की भौजी
उकाळ-उंधार
इकुलास
भगीरथी
माँ बाप
माँ त्वे बगैर
राजुला माली शाही
जैसी मती वैसी गति
आश
तीन आँखर
 जंवै
धरती गढ़वाल की
नालायक
सिपाई जी, सिपाई की सौं
बेटी बिराणी
घन्ना भाई ऍम . बी .बी .एस
लाड प्यार
ब्वारी हो त इनि (निर्देशन -बी एस नेगी , १९९८ )
सतमंगऴया (महावीर नेगी , १९९९ ) 
भग्यानी बेटी (निर्देशन -सुभाष सजवाण , २००३ )
पतिव्रता रामी (निर्देशन संतोष खेतवाल , २०१० )
 मां के आंसू (कुमाउनी) फिल्म है।
ल्या ठुंगार (मोहनी ध्यानी पटनी ) 2015
सुबेरो घाम, (उर्मि नेगी) 2015
अंजवाल (मनीष वर्मा) 2015
गोपी भिना -कुमाउनी (माधवानंद भट्ट) 2016
भुली ए भुली ( नरेश खन्ना) 2016
बौडीगे गंगा (अनिरुद्ध गुप्ता) 2017
मेजर निराला (आरुषि पोखरियाल निशंक ) 2017

                गढ़वाली एनिमेसन फ़िल्में
   
    एनिमेसन मूविंग फिल्मों का इतिहास नया नही है
   आधिकारिक तौर पर सन 1917  में बनी अर्जींटिनियाइ कुरेनी क्रिस्टिआणि निर्देशित  फीचर फिल्म 'अल पोस्टल '  प्रथम एनिमेटेड फिल्म है.
 जहाँ तक एनिमेटेड गढ़वाली फिल्मों   का  प्रश्न है इस पार ना के बराबर ही काम हुआ  है I
गूगल सर्च से पता चलता है कि गढवाली की प्रथम एनिमेटेड फिल्म पंचायत (2013)  है .  यह चार  मिनट की एनिमेटेड फिल्म  है
ऐसा लगता है कि यह फिल्म या तो डब्ड फिल्म है या ऐसे ही बना दी गयी है. इसके पात्र अमिताभ बच्चन , शाहरुख़ खान , सलमान खान , सन्नी देवल आदि हिंदी के अभिनेता हैं और आवाज भी इन्ही  जैसे है. वातावरण और मनुष्य भी मैदानी हैं. भाषा छोड़ कहीं से भी यह फिल्म गढ़वाली नही लगती है.
 आधिकारिक तौर पर असली गढवाली वातावरण और संस्कृति  वाली गढ़वाली एनिमेटेड फिल्म ' एक था गढवाल' (2013)  है. ' एक था गढवाल' दो मिनट की गढवाली फिल्म है और गाँव में  पलायन की मार झेलती एक बूढी बोडी-काकी  की कहानी  है . फिल्म काव्यात्मक शैली या गीतेय शैली में बनाई गयी है. एनिमेटर या एनिमेसन रचनाकार भूपेन्द्र कठैत ने  अपनी कल्पनाशक्ति और तकनीकी ज्ञान का परिचय इस फिल्म में दिया है. फिल्म अंत में एक कविता की कुछ पंक्तियों से खत्म होती हैं-
बांजी पुंगड़ी उजड्याँ कूड़
अपण परायुं को रन्त ना रैबार
ऊ माँ को झर झर  सरीर
आर आंखुं मा आस
क्वी त आलो कभी
त होली इगास
 संगीत व कला से गढवाल के बिम्ब बरबस दर्शक के मन में आ जाते हैं . अंत में गढवाल में रह रही महिला के प्रतीक्षारत आँखें आपको भी ढूंढती है और पूछती है कि आप कहाँ हैं क्यों नही इगास मनाने गाँव आते हो.
बमराड़ी (बणगढ़, पौड़ी  गढ़वाल ) के भूपेन्द्र कठैत प्रशंसा के अधिकारी हैं जिन्होंने गढवाली एनिमेसन फिल्मों को एक कलायुक्त रचना बनाने की भली कोशिस की . भूपेन्द्र कठैत को कोटि कोटि साधुवाद !

१९८३  में पाराशर गौड़ द्वारा की गयी  शुरुवात के बाद केवल पच्चीस के करीब उत्तराखंडी भाषाई फीचर फिल्म और दसियों वीडिओ फ़िल्में निर्मित हुयीं। संख्या की दृष्टि से  उत्तराखंडी भाषाई फ़िल्में कम बनीं किन्तु जो भी बनीं वे इस बात की द्योतक हैं कि उत्तराखंडीयों   में अपनी भाषा और पहचान का जजबा है, भाषा से प्रेम है कि लाभ ना होने के आसार होते हुए भी निर्माता फ़िल्में बना रहे हैं। कुमाउनी-गढ़वाली भाषाई फिल्मो के अधिसंख्य कलाकार जजबे के रूप में ही फिल्मों से जुड़े हैं ना कि धन लाभ हेतु। हां यह बात भी सत्य है कि अधिकतर कुमाउनी या गढ़वाली  फ़िल्में विषय गत हिसाब से पहाड़ों संस्कृति व वास्तविकता से भटकी नजर आती हैं। भाषाई फिल्मों के प्रति सरकारी अवहेलना नये राज्य बनने के बाद भी रहा है और लगता है कि भविष्य में भी रहेगा।   


Copyright@ Bhishma Kukreti 27/2/2013

Monday, March 18, 2019

उत्तराखंड फिल्म जगत को सरकार और कलाकार दोनों के सहारे की जरूरत


कहा जाता है की फिल्मे समाज का आइना होती है  मतलब हमारा समाज जैसा है वैसी ही फिल्म होती है या फिर समाज फिल्मो का अनुशरण करता है l वही दूसरी तरफ कहा जाता है कि फिल्मो से समाज बनता और बिगड़ता है यानी फिल्मो जैंसी होती है समाज भी उन्ही कदमो पर चलता है हम जैसा फिल्मों में देखते हैं वैसा ही करने या बनने की कोशिश करते है। इस का तात्पर्य है कि हम फिल्मों के माध्यम से अपनी कला, संस्कृति, बोली भाषा को जिन्दा रख सकते हैं तथा समाज को एक सूत्र में बाँध कर भी रख रकते हैं l
आज हर राज्य की तरह उत्तराखंड राज्य में भी गढ़वाली कुमाउनी या जौनसारी फिल्म एवं संगीत छेत्र में भरपूर काम हुआ है l गढ़वाली कुमाउनी फिल्मों का निर्माण का दौर वर्ष 1983 से शुरू हुआ और २ दशक तक काफी फिल्मे बनी और हिट रहीं l  लेकिन धीरे धीरे फिल्मों का निर्माण न के बराबर रह गया और संगीत छेत्र ने उसके मुकाबले काफी तरक्की कर ली है l इसका मूल कारण दोनों छेत्रों में लागत एवं प्रचार प्रसार की भूमिका महत्वपूर्ण है l आज जहाँ उत्तराखंड के ग्रामीण छेत्रों में सिनेमा हॉल का न होना तथा शहरों में हिंदी सिनेमा का बोलबाला फिल्मो के पतन की दशा को दर्शाता है वही दूसरी तरफ फिल्म की लागत न मिलने पर निर्माता भी फिल्म निर्माण से अपना हाथ पीछे खींच रहे हैं l वही दूसरी ओर संगीत छेत्र से जुड़े लोग अब सीधा यूटूब और अन्य सोशल मीडिया के जरिये अपने काम को देश विदेश तक दर्शकों को पहुचने में कामयाब हो गए हैं तो साथ ही कम लागत से बने गीतों को इस माध्यम से निर्माण लागत भी वसूलने में सफल हो रहे हैं l 
लेकिन कहते हैं कि सिक्के के दो पहलू होते हैं और दूसरा पहलू जानना भी बहुत जरूरी है, फिल्म जगत की इस हालत के जिम्मेदार काफी हद तक हमारे कलाकार भी हैं जिन्होंने फिल्म उद्योग को केवल संस्कृति के प्रचार का नाम दिया और इसके व्यसायीकरण के उपर ध्यान नहीं दिया l आज भी हर फिल्म के लिए हमें पहांड़ों पर जाना होता है कि लगे कि ये एक पहाड़ी फिल्म है l आज दक्षिण भारत की फिल्मों या अन्य राज्यों को देखे तो वो बहुत स्क्रिप्ट के अनुसार बहुत सारी फिल्मे देश के अन्य हिस्सों में यहाँ तक कि विदेशों में भी अपनी फिल्म की शूटिंग करते हैं और फिल्म को एक व्यवसाय के तौर पर लेकर उसका प्रचार प्रसार करते हैं l आज हमें यह बात समझनी होगी कि जब तक फिल्म मनोरंजक और तकनीकी रूप से मजबूत न हो तब तक हम अपनी फिल्मों से ज्यादा उम्मीद नहीं लगा सकते l आज हमारे सामने हिंदी फिल्मे एवं नाटक हमारे साथ प्रतियोगिता में खड़े हैं और दर्शक संस्कृति के साथ साथ मनोरंजन और गुणवत्ता भी चाहता है जो हमारी अधिकाँश फिल्मो में न होने पर दर्शक हिंदी सिनेमा की ओर आकर्षित हो रहा है l आज हमारे फिल्म जगत से जुड़े अधिकतर कलाकार शौकिया रूप में फिल्मों में काम कर रहे हैं और इस छेत्र में उन्होंने कोई प्रशिक्षण नहीं लिया जिससे फिल्मों की गुणवत्ता पर असर पड़ा है l साथ ही फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों का फिल्म की मार्केटिंग पर बिलकुल ध्यान न देने से फिल्म पर लगी लागत को वसूलने में नाकाम रहे हैं l बहुत सी फिल्मे जो की बन कर तैयार है लेकिन उनका कोई खरीददार नहीं मिल रहा और बाद में उस फिल्म को होटल, बैंक्वेट हॉल पर दिखाने को मजबूर हो रहे हैं l हमारे सिनेकर्मियों का सरकार पर भी कोई ठोस दबाब नहीं है कि सरकार सिनेमा जगत के लिए कोई कारगार पालिसी बनाये l
आज उत्तराखंड का संस्कृति विभाग चंद लोगों की मुठ्टी में हैं और उसका भरपूर फायदा ले रहे हैं, वही सही संस्कृतिकर्मियों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा l फिल्म निर्माण की कोई ठोस सरकारी नीति नहीं है जिससे फिल्म जगत को कोई फायदा हो l 
आज तक बहुत से संगठन बने जिन्होंने दावा किया कि वो कलाकारों के लिए उनके हित में काम करेंगे लेकिन सच्चाई कुछ और ही बयाँ कर रही है l अधिकतर संगठन कलाकारों में गुटबाजी की भावना पैदा कर रहे हैं वहीँ सगंठन के नाम पर अपनी चांदी काट रहे हैं l लेकिन आज तक उन्होंने कलाकारों के लिए कोई ठोस नीति या प्रस्ताव पर काम नहीं किया और न ही कलाकार को इन संगठनो से कोई फायदा मिला l 
आज जरूरत है कलाकारों के ऐंसे ठोस गैर राजनितिक संगठन की जो कलाकारों के हित के लिए काम करें, ताकि संगठन से जुड़ने में कलाकार अपनी सुरक्षा का अनुभव करे l जो संगठन कलाकारों के हित के लिए जन आन्दोलनों के माध्यम से सरकार को मजबूर करे कि पर्यटन के बाद अगर रोजगार है तो फिल्म निर्माण का छेत्र है जहाँ बहुत से कलाकारों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलेगा l संगठन को सरकार को मजबूर करना चाहिए कि फिल्म निर्माण को लघु उद्योग का दर्ज़ा दे तथा इस उद्योग के लिए सब्सिडी का प्रावधान दे ताकि यह एक उद्योग का रूप ले l  जो संगठन कलाकारों के शोषण को रोक सके और उनको वाजिब मेहनताना दिलाने के छेत्र में काम करे l आज इतने सारे कलाकार होने के बावजूद सभी नए कलाकारों की खोज में रहते हैं ताकि उनकी फ्री सेवा ली जा सके और इस कारण फिल्मों की गुणवता को ताक पर रखा जाता है l
आज जरूरत है ग्रामीण छेत्रों में सिनेमा हॉल, विडियो पारलर शुरू करने की ताकि फिल्मे असली दर्शकों तक पहुंचे l संस्कृति विभाग को और मज़बूत बनाये तथा विभाग को सिनेमा माध्यम से संस्कृति के प्रचार प्रसार वाली फिल्मो, उससे जुड़े कलाकारों को सम्मानित करे एवं उन्हें आर्थिक सहायता भी प्रदान करनी चाहिए ताकि इस छेत्र में अधिक काम करने को कलाकार प्रोत्साहित हों l
अगर हम वाकई में फिल्मो की इस दशा पर चिन्तित हैं तो सभी कलाकार फिल्म निर्माण के जिस भी छेत्र में काम कर रहे हैं उसमे उन्हें प्रयाप्त प्रशिक्षण प्राप्त हो और जहाँ तक हो सके फिल्मों की गुणवता से समझोता न करें l आज कोटद्वार में उत्तराखंड के श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के अंतर्गत ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट खुल चुका है और उत्तराखंड के युवा पीढ़ी जो कि कला छेत्र में अपना करियर बनाना चाहती है अब उसको बाहर जाने की जरूरत नहीं l किसी भी चीज़ के उत्पादन से पहले उसकी मार्केटिंग की व्यवस्था मजबूत होनी चाहिए l फिल्मो का जब तक व्यवसायीकरण नहीं होगा तब तक इस दिशा में सुधार की संभावनाए बहुत कम है क्योंकि हर किसी को कम से कम फिल्म पर लगी लागत तो वापस चाहिए ही l    

चंद्रकांत नेगी

Saturday, March 9, 2019

बड़े फिल्मकारों की पहली पसंद बनता जा रहा उत्तराखंड
या
फिल्मों के लिए स्वर्ग है उत्तराखंड की वादियां
नई फिल्म नीति से बढ़ी फिल्मों की शूटिंग और कारोबार
पिछले एक साल में 122 फिल्मों व टीवी सीरियल की हुई शूटिंग
देहरादून। शैलेन्द्र सेमवाल
उत्तराखंड बहुत कम समय में ही मुबंई के फिल्मकारों की नजर में सबसे लोकप्रिय शूटिंग डेस्टीनेशन बनता जा रहा है। हर दूसरे फिल्मकार की जुबां पर उत्तराखंड का ही नाम है। हर बड़ा फिल्मकार उत्तराखंड की वादियों में आकर फिल्मों की शूटिंग करना चाहता है। खास तौर पर उत्तराखंड और यहां के विषयों को लेकर फिल्में बनाई जा रही हैं। फिल्मों के किरदार यहां के लोगों को लेकर गढ़े जा रहे हैं। 
राज्य में शूटिंग के हिसाब से आधारभूत सुविधाओं के ढांचे को मजबूत करने की दिशा में जिस तेजी से काम हुआ है। उसका असर अब दिखाई देने लगा है। साल भर में कई बालीवुड फिल्मों की शूटिंग उत्तराखंड में हुई। इन फिल्मों में दिखाई जा रही लोकेशन को लेकर देश विदेश के पर्यटकों काफी उत्सुकता भी रही है। राइफल मैन जसवंत सिंह के जीवन पर आधारित 72 आवर्स, बत्ती गुल मीटर चालू, कबीर, बाटला हाउस, टोटल धमाल, स्टुडेंट ऑफ द ईयर, सोनू के टीटू की स्वीटी, संदीप एंड पिंकी फरार, करीब करीब सिंगल, शिवाय, जीनियस, परमाणु समेत और भी बहुत सी फिल्में इसका उदाहरण हैं। यहीं नहीं दक्षिण के अनेक फिल्मकार भी यहां शूटिंग को आ चुके हैं। दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत, महेश बाबू, अलु अरविंद जैसे नाम देहरादून, मसूरी में अपनी फिल्मों की शूटिंग कर चुके हैं। शाहिद कपूर, सुशांत राजपूत, सारा अली खान, जान अब्राहम, टाइगर श्र्राफ ने भी अपनी फिल्मों की शूटिंग उत्तराखंड में हाल के समय में की है। राज्य सरकार की फिल्म पॉलिसी से नई फिल्मों की शूटिंग को उल्लेखनीय प्रोत्साहन मिला है। यहां फिल्मों की शूटिंग हुई तो तो इसका सीधा असर यहां के लोगों पर भी पड़ा है। न सिर्फ युवाओं को रोजगार मिला, बल्कि यहां के कलाकारों को भी इन फिल्मों में छोटे-बड़े किरदार कर अपने सपनों को पंख लगाने का बेहतरीन अवसर मिला है। पहली बार कोई मुख्यमंत्री फिल्मकारों के बीच सीधी बातचीत के लिए मुबंई, गोवा पहुंचा। जहां अनेक फिल्म समारोह में दिग्गज फिल्मकार जुटे। पिछले एक साल की बात करें तो दस बड़े प्रोडक्शन हाउस की बड़ी फिल्मों की शूटिंग उत्तराखंड में हुई है और इसके लिए उत्तराखंड को बेस्ट फिल्म फ्रेंडली स्टेट का नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है। राजकुमार संतोषी, महेश भट्ट, सुभाष घई, इंद्रकुमार, रमेश सिप्पी, तिग्मांशु धूलिया, करण जौहर, अनिल शर्मा, जॉन अब्राहम, राकेश रोशन जैसे बड़े नाम उत्तराखंड में या तो फिल्म की शूटिंग कर चुके हैं या भविष्य में फिल्मों की शूटिंग की योजना बना रहे हैं। बाहुबली फेम एस राजमौली भी अपने अगले प्रोजेक्ट के लिए उत्तराखंड में लोकेशन तलाशने आ चुके हैं।

मिल रहे आगे बढ़ने के मौके
बड़े प्रोडक्शन हाउस की फिल्म यूनिट चार से छह सौ सदस्यों की होती है। यूनिट से जुड़ी टीमें अपने अपने काम के हिसाब से आती जाती रहती है। इसमें बड़े कलाकार भी शामिल हैं। उनके रहने के लिए अच्छे होटल, कैटरर्स, ट्रैवल एजेंसियां तो चाहिए होते हैं। इसके अलावा शूटिंग में स्क्रिप्ट के हिसाब से कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए। उसके इंतजाम के लिए भी लोकल स्तर पर लाइन प्रोड्यूसर की जरूरत रहती है। देहरादून में ऐसे अनेक युवा हैं जो लाइन प्रोड्यूसर या लोकल कॉर्डिनेटर के रूप में सफलता पूर्वक काम कर रहे हैं। सुपरस्टार रजनीकांत जब मसूरी के क्यारकुली में शूटिंग कर रहे थे तो उन्हें एक खास परिधान में विवाह समारोह के दृश्य की शूटिंग के लिए बहुत सारे लोगों की जरूरत पड़ी। ये व्यवस्था तत्काल स्थानीय स्तर पर की गई। जितने भी लोगों ने इस शूटिंग में रजनी सर के साथ हिस्सा लिया उनके लिए ये एक बड़े सपने की तरह था। करन जौहर ने स्टुडेंट ऑफ द ईयर के दोनों पार्ट देहरादून में फिल्माए, इन फिल्मों के लिए स्थानीय कलाकारों व कालेज के छात्रों को छोटी-छोटी भूमिकाएं निभाने का मौका मिला। जहां भी फिल्म की शूटिंग चल रही होती है। वहां अपने चहेते स्टार को देखने के लिए प्रशंसकों का जमावड़ा जरूर लगता है। इससे उस जगह का कारोबार स्वत: बढ़ जाता है। बाहरी कारोबारियों की रूचि भी उत्तराखंड में होटल, रेस्टोरेंट खोलने व पर्यटन स्थलों में अन्य गतिविधियां में बढ़ी है। 
 
बेहतर नेटवर्क ने बढ़ाई फिल्म इंडस्ट्री तक पहुंच या कनेक्टिंग उत्तराखंड
उत्तराखंड खूबसूरत तो है ही लेकिन इस खूबसूरती को अब अच्छी नीतियों के कारण कैश किया जाना संभव हुआ है। राज्य सरकार की नई फिल्म नीति के कारण फिल्मकारों का ध्यान उत्तराखंड की ओर गया है। उत्तराखंड में जिस तेजी से रेल, सड़क, हवाई नेटवर्क बेहतर हुआ है उस तेजी से फिल्मों से जुड़ी गतिविधियां भी बढ़ी है। इसका सीधा सा सकारात्मक असर यहां के पर्यटन कारोबार पर पड़ा है। जब लोग फिल्मों में यहां की बेहतरीन लोकेशन को बड़े पर्दे पर देखते हैं तो जरूर उन जगहों में जाकर कुछ समय बिताने के ख्वाब देखते होंगे। उत्तराखंड में ऑलवेदर रोड पर तेजी से काम चल रहा है। इससे सड़क मार्ग पहले से बेहतर होगा। कई सारी रोपवे की परियोजनाओं पर काम हो रहा है। जॉलीग्रांट समेत पंतनगर, पिथौरागढ़, समेत अनेक जगहों में हवाई पट्टी के सुधारीकरण व वहां हवाई सेवाओं की शुरूआत ने उत्तराखंड के अंतिम कौने तक फिल्मकारों की पहुंच बढ़ा दी है। इससे उन जगहों पर भी पहुंचना आसान होगा। जहां तक शूटिंग के भारी उपकरण पहुंचाना मुमकिन नहीं था। हाल के समय में कुछ ऐसे दूसरे काम भी हुए हैं। जिससे ये माना जा सकता है कि उत्तराखंड में फिल्मकारों को कम खर्चे में अधिक समय तक शूटिंग करने को भरपूर प्रोत्साहन मिलेगा। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेललाइन पर तेजी से काम चल रहा है। देहरादून-काठगोदाम के बीच नैनी-दून जनशताब्दी एक्सप्रेस दौड़ने लगी है। रुड़की-देवबंद रेललाइन का काम शुरू हो चुका है। रेल नेटवर्क के लिए केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड में रेलवे को तीन गुना अधिक पैसा दिया है। उड़ान योजना के तहत देहरादून से पिथौरागढ़ और पंतनगर तक सस्ती उड़ानों का तोहफा मिला है। इसके अलावा देहरादून से देश के 23 शहरों तक सीधी उड़ान सेवा भी है। 

इन योजनाओं से भी मिली उत्तराखंड को मजबूती
इसके अलावा कुछ ऐसे काम भी हैं जिनका असर कहीं न कहीं उत्तराखंड में आने वाले फिल्मकारों व पर्यटकों को मिलने वाली सुविधाओं से जुड़ा है। जैसे सिटी गैस डिस्ट्रीब्यूशन प्रोजेक्ट के तहत हरिद्वार-देहरादून को पाईप्ड गैस लाइन का तोहफा मिला है। रुद्रपुर, काशीपुर के लोग इस योजना से लाभांवित हो रहे हैं। केदारनाथ धाम का पुनर्निमाण युद्ध स्तर पर चल रहा है। नमामि गंगे योजना से गंगा घाटों की देखरेख के लिए 600 करोड रूपये जारी हुए हैं। इनमें कई काम तो पूरे भी हो चुके हैं। कई घाटों की सुंदरता में चार चांद लग चुके हैं। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र ने 1500 करोड रूपये जारी किए हैं। उज्जवला योजना से उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को राहत मिली है। सहकारिता में केन्द्र से सहकारिता विकास के लिए 3500 करोड रुपये मिले हैं। एक फिल्म यूनिट में सैकड़ों लोग होते हैं। जब एक फिल्म यूनिट किसी जगह कई दिनों की शूटिंग का पैकेज लेकर आती है तो यूनिट से जुड़े सदस्य राज्य में मिल रही सुविधाओं का सीधे तौर पर लाभ उठाते हैं। 

नई फिल्म नीति में बदलाव के बाद सरकार के दस बड़े कदमों से फिल्म सेक्टर में जान लौटने की उम्मीद की जा रही है।

सिनेमाघरों के लौटेंगे दिन-
प्रदेश के छह सौ मीटर से ऊपर के पर्वतीय क्षेत्रों में बंद हो चुके सिनेमाघरों को फिर से खोलने के लिए सरकार ने जीएसटी लागू होने की तिथि एक जुलाई 2017 से जमा किए गए एसजीएसटी की तीस प्रतिशत प्रतिपूर्ति का निर्णय लिया है।

एक रूपये प्रति टिकट निधि से-
सिनेमाघरों के टिकट पर एक रूपये प्रति टिकट की दर से फिल्म विकास निधि के रूप में लिया जाएगा। इस निधि का उपयोग उत्तराखंड व अन्य प्रदेश की भाषाई फिल्मों को अनुदान के रूप में किया जाएगा। इसी निधि से फिल्म पुरस्कार, फिल्मों के लिए अवस्थापना का विकास, फिल्मोत्सव, स्कॉलरशिप आदि दी जाएगी।

फिल्म प्रमाणीकरण परिषद-
क्षेत्रीय फिल्म प्रमाणीकरण परिषद का गठन होगा। इसमें उत्तराखंड में निर्मित फिल्म व क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को प्रमाणीकरण की सुविधा मिलेगी। 

क्षेत्रीय फिल्म दिखाना होगा अनिवार्य-
सिनेमा हॉलों में उत्तराखंड की क्षेत्रीय फिल्मों को व्यवसायिक शर्तों पर एक हफ्ते तक दिखाना अनिवार्य होगा।
  
राज्य में फिल्म बनाने पर टैक्स में छूट-
जिन फिल्मों की 75 फीसदी शूटिंग या आउटडोर शूटिंग का आधे से अधिक हिस्सा उत्तराखंड में शूट होगा। उन्हें गुण दोष के आधार पर एसजीएसटी लागू होने की तिथि से जमा किए गए एसजीएसटी में तीस फीसदी प्रतिपूर्ति सरकार करेगी।

75 फीसदी शूटिंग करने पर अनुदान
राज्य में यदि फिल्म का 75 फीसदी हिस्सा शूट किया जाता है तो गुण दोष के आधार पर ऐसी फिल्मों को अनुदान के लिए चुना जाएगा। इसमें फिल्म निर्माण की लागत का तीस फीसदी या फिर डेढ़ करोड रूपये तक का अनुदान शामिल है।

शूटिंग के लिए सिंगल विंडो-
उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर शूटिंग को प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी अनुमति को आसान करते हुए सिंगल विंडो सिस्टम लागू किया गया है। इसमें ऑनलाइन आवेदन की भी व्यवस्था का प्रावधान किया जा रहा है। सरकार के अन्य विभागों के स्तर पर कोई अन्य शुल्क नहीं लिया जाएगा। शूटिंग के लिए पांच पुलिसकर्मी निशुल्क उपलब्ध कराए जाएंगे। इससे अधिक संख्या होने पर निर्माता को ही खर्च उठाना होगा।

आवासीय फिल्म कांप्लेक्स-
सरकार पीपीपी मोड पर चुने हुए स्थानों पर आवासीय फिल्म कांप्लेक्स बनाएगी। जहां अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ तकनीकी स्टॉफ के रहने की व्यवस्था रहेगी। फिल्म यूनिट सदस्यों के आने जाने के लिए लग्जरी बस, ढुलान वाहनों की व्यवस्था आउटसोर्स के जरिए की जाएगी।

वजीफा भी-
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट पुणे और सत्यजीत राय फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट कोलकाता में प्रवेश लेने वाले राज्य के मूल निवासियों को हर साल 25 हजार का अधिकतम वजीफा दिया जाएगा।

निर्माता को एसजीएसटी की प्रतिपूर्ति
फिल्म निर्माण में एसजीएसटी लागू होने की तिथि से पांच साल तक जमा किए गए एसजीएसटी की प्रतिपूर्ति सरकार करेगी।

फिल्मों के लिए उत्तराखंड में इस समय सबसे अच्छा माहौल है। बत्ती गुल मीटर चालू के बाद महेश बाबू के साथ दक्षिण की फिल्म की है। इसके बाद एक और फिल्म की शूटिंग हम जल्द उत्तराखंड में करने जा रहे हैं। प्रमोद राणा, बत्ती गुल मीटर चालू के लाइन प्रोड्यूसर।
उत्तराखंड में अभी तक धर्मा प्रोडक्शन ने जितनी भी फिल्में शूट की है। उसमें हमारा अनुभव बेहद यादगार रहा है। हम बार बार उत्तराखंड आना चाहते हैं। ऐसी स्क्रिप्ट हो जिसमें जरा सा भी गुंजाइश हो तो हमें उत्तराखंड ही याद आता है। गोपाल बेबल, लाइन प्रोड्यूसर धर्मा प्रोडक्शन
 
शैलेन्द्र सेमवाल...hindustan. 9927573606 

Thursday, February 21, 2019

सरकार निकाले बदहाली से उत्तराखंडी सिनेमा को

वर्ष 1983 में जब 4 मई को पहली गढ़वाली फिल्म "जग्वाल" प्रदर्शित हुयी तब शायद किसी ने सोचा न होगा कि एक दिन यह फिल्म ऐतिहासिक बनेगी और उत्तराखंडी सिनेमा की नींव के तौर पर जानी जाएगी. यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि तब गढ़वाली फिल्म को उत्तराखंडी सिनेमा के किसी भी रूप में परिभाषित करने की संभावना नहीं के बराबर थी. आंचलिक फिल्म्स की इस फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ (वास्तविक नाम पारेश्वर गौड़) को भी शायद इसका अंदाजा न रहा होगा. हो सकता है कि उन्होंने "जग्वाल" के रूप में मात्र पहली गढ़वाली फिल्म बनाने का सपना देखा हो. याद है कि यह फिल्म सबसे पहले नई दिल्ली स्थित मावलंकर हॉल में दिखाई गयी थी. ऐसा इसलिए करना पड़ा था क्योंकि किसी रेगुलर सिनेमा हॉल का किराया देने के लिए आंचलिक फिल्म्स कंपनी के पास या पराशर गौड़ के पास पैसे नहीं थे और कोई सिनेमा हॉल या फिल्म वितरक इसे अपने बूते रिलीज़ करने को तैयार नहीं था.
बहरहाल, मावलंकर हॉल पर भीड़ इतनी उमड़ पड़ती थी कि बस मत पूछिए. मैं फिल्म बनाने वालों से लेकर फिल्म में काम करने वाले कई लोगों को जानता था पर पहले कुछ दिन फिल्म के दर्शन नहीं हो पाए, चूंकि फिल्म देखने वालों की संख्या बहुत ज्यादा और हॉल में सीटों की संख्या सीमित थी. खैर, कुछ दिन बाद फिल्म देखी और पहली बार परदे पर फिल्म के पात्रों को गढ़वाली में संवाद करते हुए देखा. यह अपने आप में एक अदभुत अनुभव था. एक बारगी लगा कि सत्यजित राय से लेकर कुरोसावा तक सब फीके पड गए हैं और उनकी फिल्में भी "जग्वाल" के सामने कुछ नहीं हैं. ऐसा शायद इसलिए लगा होगा क्योंकि भीतर का मन ऐसी ही कोई फिल्म देखना चाहता होगा जो सत्यजित राय या कुरोसावा की फिल्मों को टक्कर दे. कुल मिलाकर लगा जैसे हमारा अर्थात पहाड़ के लोगों का भी कोई अस्तित्व है और हम भी इस देश के सचमुच में नागरिक हैं. न जाने क्यों सर ऊंचा सा हो गया था. पहाड़ी होने की हीन भावना तो कभी रही नहीं पर न जाने ऐसा क्यों लगा था मानों औरों के समान्तर आ गए हैं.
उत्तराखंड के हजारों-हजारों लोग दशकों-दशकों से दिल्ली और ऐसे ही अनेक शहरों में रामलीलाएं करते आ रहे थे लेकिन तब ऐसा कोई अहसास नहीं हुआ जो मात्र एक गढ़वाली फिल्म के बन जाने से हुआ. और हां, यह अहसास केवल गढ़वाली लोगों को नहीं अपितु कुमांउनी लोगों को भी हुआ. संक्षेप में "जग्वाल'" के निर्माण को पहाड़ी या उत्तराखंडी पहचान और सांस्कृतिक अभिव्याक्ति के रूप में देखा गया. और, यही अभिव्यक्ति कालान्तर में उत्तराखंड सिनेमा के रूप में प्रकट हुयी. दिल्ली से बाहर के अनेक शहरों से लोग दिल्ली केवल और केवल इस फिल्म को देखने आये थे और जब टिकट नहीं मिली तो पांच रुपये की टिकट ब्लैक में सौ रुपये में भी खरीदी. वैसे तब पांच रुपये की भी खूब औकात होती थी.
"जग्वाल" के बाद अनेक फिल्में गढ़वाली और कुछ कुमांउनी में बनीं. उनके स्तर के बारे में यहां चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह विषय दूसरा है. हम मूल रूप से चर्चा इस बात पर करेंगे कि गढ़वाली और कुमांउनी फिल्में और बाद में इन दोनों भाषाओँ की एल्बम क्यों और किस प्रकार उत्तराखंड सिनेमा और उत्तराखंडी एल्बम के तौर पर धीरे-धीरे स्थापित हुईं. असल में गढ़वाल और कुमाऊं दोनों जगह के बहुत से लोग ऐसे थे जो अपनी-अपनी पहचान में ज्यादा और उत्तराखंडी पहचान में कम विश्वास रखते थे; लेकिन उत्तराखंड आन्दोलन और उत्तराखंडी पहचान का ऐसा दबाव था कि इन लोगों की एक नहीं चली और धीरे-धीरे ही सही; गढ़वाली और कुमांउनी सिनेमा उत्तराखंडी सिनेमा के रूप में अभिव्यक्ति पाने लगा. यह उत्तराखंडी पहचान की बड़ी जीत थी.
आज भले ही हमारे लोग गढ़वाली और कुमांउनी में फिलें बना रहे हैं लेकिन उनके दिमाग में बाज़ार के तौर पर पूरा उत्तराखंड है. फिल्म दोनों में से किसी भी एक भाषा में हो लेकिन संबोधन पूरे उत्तराखंडी समाज के लिए रहता है. कुछ फिल्मों में तो सीधे-सीधे लिखा होता है 'उत्तराखंडी फिल्म'.
और हां, पिछले तीन-चार साल में यंग उत्तराखंड नामक नौजवान लोगों की सामाजिक संस्था ने “यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स” की शुरुआत कर गढ़वाली- कुमांउनी के भेद को पूरी तरह समाप्त कर दिया है. अब लिहाजा इसी सन्दर्भ में पूरी बातचीत उत्तराखंडी सिनेमा पर रखी जाएगी. "जग्वाल" की पृष्ठभूमि में मंगलेश डबराल जी ने जब 1983 में "जनसत्ता" के रविवारी संस्करण के लिए मुझसे लेख लिखने को कहा था तब वास्तव में गढ़वाली सिनेमा पर लिखना चुनौती था क्योंकि सन्दर्भ के लिए कुछ भी नहीं था. बहरहाल, लेख लिखा और छपा भी. यह गढ़वाली सिनेमा पर पहला लेख भी था. बाद में "पर्वतवाणी" के लिए जब इसी बिषय पर लिखा तब कुछ आसानी थी. तब से लेकर अब तक गढ़वाली से लेकर कुमांउनी सिनेमा तक ने काफी कुछ सफ़र तय कर लिया है और आज इन दोनों की निजी पहचान कम और उत्तराखंडी पहचान ज्यादा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस पहचान में मजबूती आयी है.
अब कुछ खट्टी-मीठी बातें उत्तराखंडी सिनेमा के बारे में. उत्तराखंडी जनता के एक वर्ग ने जहां फिल्मों को सिर-आंखों पर लिया, वहीं दूसरी और उत्तराखंड सिनेमा की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाई. इसका कारण कमज़ोर ढांचे का होना रहा है. उत्साही प्रोडूसर पांच-सात लाख रुपये लगाकर उत्तराखंडी फिल्म बनाता है और फिल्म का विपणन करने वाली कंपनी शर्मनाक राशि देकर फिल्म के वितरण सम्बन्धी अधिकार खरीद लेती है. ऐसी स्थिति में कौन फिल्म बनाएगा? फिल्म निर्माताओं का ऐसा भी कोई संगठन नहीं है जो फिल्म वितरण का काम देखे. कुल मिलाकर या तो फिल्म निर्माता को शोषक वितरक पर निर्भर रहना पड़ता है अथवा अपने स्तर पर ही वीसीडी बेचने का काम भी करना पड़ता है. इस पूरी ज़द्दोजहद में कलाकार, संगीतकार, गीतकार, छायाकार, और अन्य सभी रचनाकार कहीं परदे के पीछे ही रह जाते हैं. उनके बारे में न तो कोई जानना चाहता है और न ही कोई बताने वाला होता है. अंत में यही कि फूक झोपड़ी, देख तमाशा!
लोगों में भी ऐसा कोई रुझान नहीं दिखाई देता कि वे उत्तराखंड सिनेमा को प्रोत्साहित करना चाहते हैं. पिछले दिनों यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स कार्यक्रम के दौरान फिल्म निर्माता और कलाकार राकेश गौड़ तथा कलाकार मदन डुकलान की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण थी कि यदि लोग हर महीने उत्तराखंडी फिल्मों की केवल एक वीसीडी खरीदने का निर्णय कर लें तो उत्तराखंड सिनेमा भी बच रहेगा, संस्कृति भी बचेगी और उत्तराखंड की भाषाएं भी बच रहेंगी. उम्मीद करते हैं कि ऐसा हो पर यदि नहीं हुआ तो दूसरा क्या उपाय हो सकता है?
हमारी नज़र में दूसरा उपाय केवल और केवल उत्तराखंड और केंद्र सरकार की और से संस्थागत समर्थन हो सकता है. अभी उत्तराखंड सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा है, उसमें सरकारी मदद के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता है. याद दिला दें कि इच्छाशक्ति हो तो सब कुछ हो सकता है. विश्व विख्यात फिल्म-मेकर सत्यजित राय को जब "पाथेर पांचाली" फिल्म बनानी थी तो वह पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यामंत्री के पास मदद के लिए गए और मुख्यमंत्री के कहने पर उन्हें वहां के परिवहन विभाग ने फिल्म बनाने के लिए पैसा दिया क्योंकि मुख्यामंत्री ने समझा कि फिल्म पथ परिवहन के बारे में होगी.
जब यह हो सकता है तो उत्तराखंड में जहां हर व्यक्ति अपने आप को संस्कृति का वाहक समझता है वहां संस्कृति विभाग या फिल्म प्रभाग क्यों नहीं उत्तराखंड सिनेमा को आगे लाने के लिए सब्सिडी दे सकता है? हमारे पास प्राकृतिक लोकेशंस हैं, फिल्म की समझ रखने वाले लोग हैं, कलाकार हैं, आम आदमी के नज़रिए से चीजों को देखने वाले हैं -- अर्थात सब कुछ है हमारे पास, पैसे के अलावा और पैसा सरकार दे सकती है. यह क्यों नहीं हो सकता कि सरकारी फिल्म विभाग अच्छी फिल्म स्क्रिप्ट्स का चयन स्वायत्त और प्रामाणिक संस्था का गठन कर करवाए और अपनी आर्थिक मदद से फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन दे?
हमारे जन प्रतिनिधियों को भी इस मामले में आगे आना होगा और फिल्मों के माध्यम से वहाँ कि संस्कृति, कलाओं, संगीत, लोक कलाओं, और भाषाओँ को बचाने की कोशिश कर रहे चंद लोगों की सहायता करनी होगी. यदि ऐसा नहीं हुआ तो घाटे में उत्तराखंडी फिल्म उद्योग कितने दिन आगे चल सकता है? 16-एमएम से शुरू हुआ फिल्मों का सफ़र 35-एमएम या 70-एमएम तक जाने के बजाय डिजिटल के माध्यम से आज वीसीडी तक आकर ठिठक गया है.
सरकारी मदद न मिली तो क्या पता यह भी गायब हो जाये और तब आने वाली पीढियां किताबों में पढ़ें कि कभी उत्तराखंड सिनमा भी हुआ करता था. देश की अन्य भाषाओँ के समृद्ध सिनेमा से तो तुलना करने का विषय ही नहीं है, यह बात तो तब होगा जब खूब उत्तराखंडी फिल्में बनेंगी और व्यावसायिक रूप से सफल भी रहेंगी. हमारा मानना है कि आज उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड भाषाओँ के सिनेमा को थोडा चलने लायक बना दे तो यह आने वाले समय में स्वयं दौड़ने लगेगा अपनी पूरी ताकत एवं सांस्कृतिक समृद्धि के साथ.
इस लेख के आरम्भ में कहा था कि "जग्वाल" फिल्म के रिलीज़ होने के बाद पहाड़ी समाज को लगा था कि वह भी और समाजों की बराबरी में आ गया है और बहुत कुछ कर सकता है. यही वह बात थी जिस चीज ने बाद में दर्ज़नों लोगों को गढ़वाली और कुमांउनी में खासतौर से फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया. इसे हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के उच्चीकरण के रूप में भी देख सकते हैं. आज इस चेतना को और आगे ले जाकर देश के बाकी हिस्सों की सांस्कृतिक चेतना के समकक्ष लाने की आवश्यकता है. फिल्म उद्योग इस काम को तेजी के साथ करने में सक्षम है और उत्तराखंड सरकार को यह बात जाननी और पहचाननी चाहिए. अभी भी समय है. किसी ने ठीक ही कहा है, जब जागो तब सवेरा!

-- सुरेश नौटियाल

Friday, February 9, 2018

राजेंद्र धस्माना: एक युग का अवसान!

-सुरेश नौटियाल
गढ़वाली थियेटर के पुरोधागांधी वांग्मय के पूर्व प्रधान संपादकदूरदर्शन और आकाशवाणी के समाचार संपादकउत्तराखंड आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर और कवि राजेन्द्र धस्माना जी का निधन गत 16 मई 2016 को दिल्ली में हुआ.
उनके शोक-संतप्त परिवार में पत्नी बसंतीविवाहित पुत्री परिधि धस्माना-नेगी और उनका परिवार, दो बेटे (केंद्रज और उसका परिवार तथा इन्दिवजल) ही नहीं बल्कि एक भरपूर विस्तारित परिवार है, जिसमें उनका भाई नरेंद्र और उसका परिवार, भतीजा पर्यंत और उसका परिवार, तीन बहनें और उनके परिवार ही नहीं बल्कि अनेक संबंधी, अनेक मित्र और शुभचिंतक आते हैं.
16-17 मई 2017 की मध्यरात्रि को धस्मानाजी के छोटे पुत्र इन्दिवजल का मेरे फेसबुक मैसेंजर में संदेश आया. नींद के झोंके में एक बार तो मन हुआ कि संदेश नहीं देखता हूं, पर फिर सोचा कि इतनी रात गए संदेश आया तो अवश्य कुछ बात होगी. मन में एक खटका सा भी था. इसलिए संदेश देखा. आघात हुआ पर आश्चर्य नहीं क्योंकि देर रात संदेश आने की घटना ने मन में एक तर्क तो गढ़ ही लिया था. इन्दिवजल ने संदेश में लिखा था पिताजी (धस्माना जी) नहीं रहे. बस इतना ही. कुछ अतिरिक्त जानकारियां लीं और मैंने भी अपनी वाल पर इस बारे में संक्षेप में लिख दिया. सवेरे उठा और सबसे पहले चन्दन डांगी द्वारा संपादित और पहाड़ संस्था द्वारा प्रकाशित संकलन “उत्तराखंड की प्रतिभाएं” निकाला और उसमें से सामग्री लेकर धस्मानाजी के बारे में एक पोस्ट डाला.
धस्मानाजी और मेरी मित्रता तीन दशक से भी अधिक समय तक रही, पर तब भी मुझे इस संकलन की आवश्यकता हुयी और यह बात भी समझ में आयी कि प्रतिभाओं और विभूतियों के बारे में सूचना संकलन कितना आवश्यक है.
अगले दिन निगमबोध घाट पर अनेक मित्र मिले. अधिकतर कॉमन फ्रेंड्स. धस्माना जी के बारे में बातें होती रहीं. कोई उनके व्यक्तित्व के बारे में तो कोई उनके कृतित्व के बारे में और कोई उनकी सहजता के बारे में. पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी, नाटक कलाकार, राजनीतिक कार्यकर्ता, संबंधी, मित्र, प्रशंसक, वैचारिक मित्र, इत्यादि, इत्यादि सब प्रकार के लोग वहां उपस्थिति थे.  
मैंने इन्दिवजल से पूछा कि एक प्रगतिशील व्यक्ति का अंतिम संस्कार जमुना के गंदे पानी और नितांत गंदगी के बीच क्यों किया जा रहा है? वह मेरी बात से सहमत था और उसने स्वयं भी कहा कि पिताजी यह सब पसंद नहीं करते थे पर परिवार वालों का सामूहिक निर्णय हावी रहा. यह बात बाद में 28 मई को प्रेस क्लब में स्मृतिसभा के दौरान सीपीआई-एमएल लिबरेशन के नेता राजा बहुगुणा ने भी उठायी. उन्होंने कहा कि वह पारंपरिक अंतिम क्रिया का विरोध नहीं कर रहे हैं लेकिन धस्मानाजी जैसे प्रगतिशील और पर्यावरण के लिए चिंतित व्यक्ति की अंतिम क्रिया इस प्रकार किया जाना उचित नहीं था. यह बात सही भी है.   
27 मई 2017 को नयी दिल्ली के जोरबाग स्थित आर्य समाज भवन में उनकी तेरहवीं का कार्यक्रम भजन और स्मृतिसभा के साथ हुआ. अगले दिन 28 मई को प्रेस क्लब ऑव इंडिया सभागार में क्लब की सहायता से उनकी स्मृति में एक सभा का आयोजन किया गया.   अनेक लेखकोंपत्रकारोंरंगकर्मियों, सामजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और समाज के अन्य वर्गों के लोगों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की. वक्ताओं ने उन्हें बहुमुखी प्रतिभा का धनी बताया.
स्मृतिसभा के अध्यक्ष प्रो. सच्चिदानंद सिन्हा ने कहा कि उनका व्यक्तित्व चुंबकीय था और उनके साथ विचारों की असमानता के बाद भी उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव स्वत: उपस्थित हो जाता था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी-एमएल लिबरेशन के नेता राजा बहुगुणा ने कहा कि वह लेखक और पत्रकार ही बल्कि एक बड़े आंदोलनकारी भी थे.
स्मृति-सभा में धस्माना जी के परिवार के सदस्य उपस्थित थे -- सच्चिदानंद सिन्हाजेबी सिंह नेगीपरिधि धस्माना-नेगीइन्दिवजल धस्मानानरेन्द्रधस्मानापर्यन्त धस्माना और खगोलिम नेगी. अन्य उपस्थित-जन में महत्वपूर्ण थे: विधिवेत्ता रविकिरण जैन, एक्टिविस्ट (गिरिजा पाठक, अरुण कुमार सिंहभूगर्भशास्त्री आर श्रीधरहाई हिलर्स के अनेक संस्कृतिकर्मी (गिरीश सिंह बिष्टगिरधारी सिंह रावतदिनेश बिजलवाण, कुसुम बिष्ट, संयोगिता पन्त-ध्यानी, कुसुम चौहान, महेंद्र सिंह रावत, धीरज कोठियाल इत्यादि)नाट्य-निर्देशक डॉ. सुवर्ण रावतएक्टिविस्ट राजेन्द्र रतूड़ीसंस्कृतिकर्मी किशोर शर्माअनेक पत्रकार (अनंत मित्तल, कृष्णकान्त उनियालसुनील नेगीदाताराम चमोली, उमाकांत लखेड़ा, व्योमेश जुगरान, नीरज जोशी और विनोद ढौंडियाल), लेखक (रमेश घिल्डियाल और मदन थपलियाल), संस्कृतिकर्मी (चन्दन डांगीहेम पन्तकेएन पांडेय) इत्यादि.
इनमें से अधिकतर ने धस्मानाजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला और कहा कि उनके कार्य को आगे ले जाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.सुरेश नौटियाल ने उनकी स्मृति में एक ट्रस्ट बनाकर उनकी रचनाओं को छापनेउनकी पुस्तकों की लाइब्रेरी बनाने और उनके कृतित्व को आगे बढाने का सुझाव दिया.
धस्माना जी का जन्म अप्रैल 1937 को गढ़वाल जनपद के एकेश्वर ब्लॉक में बग्याली ग्राम में पंडित चंडीप्रसाद धस्माना और कलावती देवीजी के घर मेंहुआ था. उन्होंने स्नातकोत्तर शिक्षा और पत्रकारिता तथा जन-संपर्क में में डिप्लोमा किया था. वर्ष 1955 से ही हिंदी कविताओं की रचना आरंभ की. उनका कविता-संग्रह “परिवलय” कविता को निस्संदेह एक नया आयाम देता है और कविता को वैज्ञानिकता के साथ समझने की दृष्टि भी देता है.
साथ के दशक से वह गढ़वाली नाट्य-क्षेत्र में उतारे और जीवन-पर्यंत उसमें रमे रहे. अर्धग्रामेश्वर” सहित अनेक महत्वपूर्ण नाटक उन्होंने लिखे तथा गढ़वाली भाषा के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान किया. दिल्ली में जागर और दि हाई हिलर्स ग्रुप जैसी नाट्य-संस्थाओं के साथ उनका लंबा साथ रहा.
वह एक समय में गढ़वाल हितैषिणी सभा दिल्ली के अध्यक्ष भी रहे उत्तराखंड पीयूसीएल के अध्यक्ष भी रहे. उत्तराखंडी अधिकारियों की संस्था उत्तरायण के भी वह पदाधिकारी रहे और इस संस्था की अनेक महत्वपूर्ण स्मारिकाओं का संपादन भी उन्होंने किया. उत्तराखंड के विभिन्न पक्षों पर एक अंग्रेजी पुस्तक का भी उन्होंने संपादन किया.
उत्तराखंड राज्य आन्दोलन सहित क्षेत्र के सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा. उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के गठन और उसे राजनीतिक दिशा देने में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका रही. इस पार्टी का संविधान और नीतिपत्र बनाने वाली समिति के भी वह सदस्य रहे.
रंगकर्मराजनीतिसमाजसेवाघुमक्कड़ीग्राम-विकाससाहित्य-संस्कृतिलोक संचित ज्ञानगांधी-दर्शनपत्रकारिता-मीडियामानवाधिकार इत्यादि क्षेत्रों में उनकी गहरी रुचि थी और इन क्षेत्रों में उनका योगदान भी महत्वपूर्ण रहा.
सतत स्वाध्यायघुमक्कड़ी और जन-संपर्क से ज्ञान और अनुभव अर्जन उन्हें बहुत पसंद थे. उनका सन्देश था कि अपने जीवन का कुछ समय अन्य के लिए भी जिया जाना चाहिए.
संक्षेप में इतना ही कि उनके साथ लोगों के लाख मतभेद रहे हों, पर उनका जाना समाज और सामाजिकता के लिए, साहित्य के लिए, रंगकर्म के लिए, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक राजनीति के लिए, मानवाधिकारों और पारिस्थितिक मूल्यों के लिए बहुत बड़ी क्षति हैं. सच में उनके निधन से उत्तराखंड के संदर्भ में एक यूग का अवसान हो गया है!

Thursday, February 8, 2018

चन्द्र सिंह राही: उत्तराखण्ड की एक सांस्कृतिक थाती

(स्व० चन्द्र सिंह राही जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, वह किसी बोली भाषा से हटकर पूरे उत्तराखण्ड के ग्याता और लोककर्मी थे। दिनांक १० जनवरी को उनकी पुण्य तिथि पर याद कर रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार श्री चारु तिवारी जी)
रात के साढ़े बारह बजे उनका फोन आया। बोले, ‘त्याड़ज्यू सै गै छा हो?’ एक बार और फोन आया। मैंने आंखें मलते हुये फोन उठाया। सुबह के चार बजे थे। बाले- ‘त्याड़ज्यू उठ गै छा हो।’ उनका फोन कभी भी आ सकता था। कोई औपचारिकता नहीं। मुझे भी कभी उनके वेवक्त फोन आने पर झुझंलाहट नहीं हुई। अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट स्थित मेरे गांव तक वे आये। मेरे पिताजी को वे बाद तक याद करते रहे। घर में जब आते तो बच्चों के लिये युद्ध का मैदान तैयार हो जाता। वे ‘बुड्डे’ की कुमाउनी वार से अपने को बचाने की कोशिश करते। पहली मुलाकात में पहला सवाल यही होता कि- ‘त्वैकें पहाड़ि बुलार्न औछों कि ना?’ मेरी पत्नी किरण तो उनके साथ धारा प्रवाह कुमाउनी बोलती। पानी के बारे में उनका आग्रह था कि खौलकर रखा पानी ही पीयेंगे। हमारी श्रीमती जी हर बार इस बात का ध्यान रखती और उनको आश्वस्त कराती कि यह पानी खौलकर ठंडा किया है। वे खुश रहते। मेरी दोनों बेटियां उन्हें बहुत पसंद करती थी। उन्हें ‘स्मार्ट बुड्डा’ कहती। जब भी आते बच्चों को बहुत स्नेह करते। हमारे आॅफिस में भी उनका ‘आतंक’ छाया रहता। पहाड़ी बोलनी जिसे नहीं आती उसकी शामत आ जाती। फिर उनका पूरा भाषण सुनना ही पड़ता था। जनवरी 2016 में लोक के मर्मज्ञ चन्द्रसिंह ‘राही’ जी अस्वस्थ हो गये थे। इस दौरान कई अस्पतालों में उनका इलाज चलता रहा। लेकिन बहुत प्रयासों के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हो पाये और 10 जनवरी 2016 को इस दुनिया को अलविदा कह गये। उनके जाने का मतलब है लोक विधाओं के एक युग का अवसान। उनके गीत हमारे बीच रहेंगे। सदियों तक। हमेशा-हमेशा। उनकी तीसरी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’ का मतलब था, सभी लोक विधाओं का एक साथ चलना। उनको समझना। उस अन्र्तदृष्टि को भी जो लोक के भीतर समायी है। वे लोक विधाओं का एक चलता-फिरता ज्ञानकोश थे। वे लोक धुनों के धनी थे। प्रकृति प्रदत्त आवाज के बादशाह भी। उनके गीतों में प्रकृति का माधुर्य है। संवेदनाएं हैं। भाषा का सौंदर्य है। बिम्ब जैसे उनके गीतों की विशेषता। शब्दों का बड़ा संसार है। उनके पास लोक की पुरानी विरासत थी। नये सृजन के लिये खुले द्वार भी। लोक में बिखरी बहुत सारी चीजों को समेटने की दृष्टि भी। वे लोक गायक थे। गीत लिखते और गाते थे। संगीत से उनका अटूट रिश्ता रहा। लोक वाद्यों पर उनका अधिकार था। कोई लोकवाद्य ऐसा नहीं है जिसे उन्होंने न बजाया हो। वे उत्तराखंड के हर लोकवाद्य पर अधिकारपूर्वक बोल सकते थे। ‘राही’ जी लोक विधाओं के अन्वेषी थे। लगभग तीन हजार से अधिक लुप्त होते लोकगीतों का संकलन उनके पास था। गढ़वाली और कुमाउंनी भाषा पर उनका समान अधिकार था। इन सबके साथ ‘राही’ जी हमारी सांस्कृतिक धरोहर के सबसे प्रबल पहरेदार थे। एक सरल इंसान। दरअसल ‘राही’ जी की अपनी खूबियां थीं।
चन्द्रसिंह ‘राही’ जी से मुलाकात कब हुई यह कहना बहुत कठिन है। लगता था कि दशकों से एक-दूसरे को जानते थे। उम्र का इतना बड़ा फासला होने के बावजूद उन्होंने कभी उस अन्तर को प्रकट नहीं होने दिया। उनके साथ उस दौर में ज्यादा निकटता हो गयी जब मैं ‘जनपक्ष’ पत्रिका का संपादन कर रहा था। कभी भी, किसी भी समय उनका फोन आ सकता था। वह सुबह पांच बजे भी हो सकता था, रात के 12 बजे भी। बहुत आत्मीयता से वे कुमाउनी में बात करते थे। दो साल पहले अपने गृह क्षेत्र द्वाराहाट के कफड़ा में एक कार्यक्रम में शामिल होने गया। चन्द्रसिंह ‘राही’ भी साथ थे। पता चला कि वहां रामलीला भी हो रही है। आयोजकों ने कहा कि आप रामलीला का उद्घाटन कर दो। हमें भी रामलीला देखनी थी चले गये। लोगों को पता नहीं था कि मेरे साथ कौन हैं। मैंने मंच में जाकर घोषणा की कि रामलीला का उद्घाटन चन्द्रसिंह ‘राही’ करेंगे। और स्पष्ट करते हुए बताया कि ये वही ‘राही’ जी हैं जिन्होंने ‘सरग तारा जुनाली राता…’, ‘हिल मा चांदी को बटना…’, जैसे गीत गाये हैं। पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। रामलीला तो छोड़िये पहले गीतों की फरमाइश आ गयी। पुरानी पीढ़ी के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि सत्तर के दशक में जिस गायक को रेडियो पर सुना था उसे कभी सामने भी देख पायेंगे। ऊपर से धारा प्रवाह कुमाउनी बोलने से वे लोगों के चहेते बन गये। मैं उन्हें कई आयोजनों में अधिकारपूर्वक अपने साथ ले गया। वे जहां भी गये अपने गीतों से लोगों के दिलों में जगह बना आये। ‘राही’ जी को ‘जौनसार’ से लेकर ‘जौहार’ तक की लोक विधाओं में महारत हासिल था।
सत्तर का दशक। हम तब बहुत छोटे थे। दूरस्थ गांवों में मनोरंजन के कुछ ही साधन थे। रामलीला और स्थानीय स्तर पर लगने वाले मेले-ठेले। हमारे क्षेत्र में दो मेले लगते थे- ‘स्याल्दे-बिखौती’ और ‘बग्वाल मेला।’ चैत-बैसाख में रातभर गांवों में झोड़े-चांचरी की धूम रहती। गांव से दूर जंगल को जाती महिलाओं की लंबी कतारें ‘झोड़े’ के रंग में अपना रास्ता तय करती थी। उनके लिये यह लोकगीत जीवन का संगीत था। आगे बढ़ने की ताकत, सहयोग और सहकारिता के साथ चलने का दर्शन भी। गांव में रेडियो थे, लेकिन कुछ ही घरों में। कुछ मिलट्री वाले अपने घर के बाहर ऊंची आवाज में रेडियो लगा देते। हमारे घर में भी रेडियो था। मेरे पिताजी बग्वालीपोखर इंटर कालेज में प्रधानाचार्य थे। हम लोग स्कूल में बने आवास में ही रहते थे। मेरी ईजा दो मंजिले मकान की बड़ी सी खिड़की में बैठकर शाम को रेडियो लगाती। उसमें आकाशवाणी लखनऊ, नजीबाबाद, दिल्ली और रामपुर से गीत प्रसारित होते। ‘गिरि गुंजन’, ‘उत्तरायण’ और दिल्ली से प्रसारित होने वाला ‘फौजियों के लिये फरमाइशी कार्यक्रम’ हमारे लिये दिलचस्प थे। ‘उत्तरायण’ जब शुरू होता तो इससे पहले एक गीत की धुन आती थी- ‘आगे कदम… आगे कदम… आगे कदम…।’ इसके शुरू होते ही हम अपने सारे खेल छोड़कर भागकर घर आ जाते। इस कार्यक्रम को सुनने। ईजा की ड्यूटी थी कि जब ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता तो वह हमें ‘धात’ (जोर से आवाज) लगाती। किसी वजह से हमें इस कार्यक्रम की सूचना नहीं दे पाती तो उनके लिये नई मुसीबत खड़़ी हो जाती। हम ईजा से जिद करते कि फिर से उसी कार्यक्रम को लगाये। बेचारी ईजा क्या कर सकती थी। कार्यक्रम दुबारा नहीं आ सकता था। बहुत सारे गीत थे। कुमाउनी और गढ़वाली में। कुछ गीत आज भी कानों में उसी तरह गूंजते हैं। ‘छाना बिलोरी झन दिया बोज्यू, लागनी बिलोरी का घामा…’, ‘गरुडा भरती कौसानी ट्रेनिंगा, देशा का लिजिया लडैं में मरुला…’, ‘बाटि लागी बराता चेली भैट डोलिमा…’, ‘सरग तरा जुनाली राता, को सुणलो तेरी-मेरी बाता…’, ‘काली गंगा को कालो पाणी…’, ‘हिल मा चांदी को बटना…’, ‘रणहाटा नि जाण गजै सिंहा…’, ‘मेरी चदरी छूटि पछिना…,’ ‘रामगंगा तरै दे भागी, धुरफाटा मैं आपफी तरूलों…,’ ‘पार का भिड़ा कौ छै घस्यारी…’, ‘कमला की बोई बना दे रोटी, मेरी गाड़ी ल्हे गै छ पीपलाकोटी…’, ‘पारे भिड़ै की बंसती छोरी रूमा-झुम…’, ‘ओ परुआ बोज्यू चप्पल कै ल्याछा यस…’, ‘ओ भिना कसिके जानूं द्वारहाटा…,’ ‘धारमक लालमणि दै खै जा पात मा…।’ और भी बहुत सारे गीत थे। ‘न्यौली’, ‘छपेली’, ‘बाजूबंद’, झोड़े-झुमेलो’, ‘भगनोल’, ‘ऋतुरैण’ आदि जिन्होंने हमें लोकगीतों की एक समझ दी। इन गीतों के साथ हम बड़े हुए और इन्हें सुनकर ही हमने रामलीलाओं और स्कूल की बाल-सभाओं में खड़ा होना सीखा। यही लोकगीत हमारी चेतना के आधार रहे।
हम लोग जब दुनियादारी को समझने लगे तो इन लोकगीतों का मर्म भी समझ में आने लगा। यह भी कि बहुत सहजता से कह दी गयी बातें हमारे जीवन की संवेदनाओं से कितने गहरे तक जुड़ी हैं। इन गीतों में हमारा पूरा समाज चलता है। इन गीतों से हमने एक-दूसरे के दर्द भी जाने और दर्द के साथ जीना भी सीखा। कितनी सारी अन्तर्कथायें हैं इन गीतों के भीतर। हमारी अन्तर्कथायें। लोक की, लोक में रहने वाले समाज की। सबकी सामूहिक। व्यक्तिगत तो हो ही नहीं सकती। होती तो यह आवाज लोक से नहीं निकलती। जंगल के एकान्त से निकलने वाली ‘न्यौली’ हो या गांव से निकलने वाला ‘भगनौला’, सामूहिकता में पिरोई ‘झौड़े-झुमैलो’ की रंगत हो या ‘खुदेड़ गीत’, हमारे पारंपरिक ‘ऋतुगीत’ हों या ‘मांगलगीत’, पांडव गीत-नृत्यों से लेकर ‘रम्माण’ तक, घस्यारी के गीतों से लेकर बद्दी गीत, थड़िया, चैंफला, चांचरी, बाजूबंद, छूड़ा, जागर, लोक गाथाओं तक।
लोकवाद्य ढोल, नगाड़ा, बांसुरी, जौल्यां-मुरली, नागफनी, रणसिंगा, डफली, हुड़का, शंख, घंट, इकतारा, दोतारा, सारंगी, बिणाई, खंजरी, तुरही, भंकोरा, डौंर, थाली, डमरू, अलगोजा, मशकबीन, घुंघरू, खड़ताल, घानी, चिमटा, मजीरा, कंसेरी, झांझ तक लोक विधाओं का इतना बड़ा संसार फैला है, जिसका हर छोर हमारे अन्तर्मन को समेटे है। जितना बढ़ेगा हमारी पूरी दुनिया इसमें समा जायेगी। इसमें व्यापकता है। आत्मसात करने की शक्ति और अभिव्यक्ति की कला भी। इसलिये इसे व्यक्त करने की कितनी विधायें हैं। लोक है तो उसमें संगीत होगा। संगीत है तो जीवन होगा। उसके विभिन्न रंग होंगे। दुख के, सुख के। प्रेम और विछोह के। खुद-बाडुली के। उत्साह-उमंग के। चेतना के। कभी विद्रोह-प्रतिकार के भी। लोक से निकली हर आवाज ने समाज को प्रतिबिंबित करते सामूहिक गीतों की जो पंरपरा बनायी उसने हमें मिलकर आवाज उठाना भी सिखाया। यह आवाज तब तक निकलती रहेगी जब तक गांव बचा रहेगा। यही लोकगीतों की परंपरा के जीवित रहने की शर्त है।
तीन-साढ़े तीन दशक बाद उस ओर लौटना सुखद अतीत की स्मृतियों में खोना है। ये स्मृतियां ऐसे समय में और जीवंत हो उठती हैं जब हम लोक विधाओं को बचाने की चिंता में हैं। इस तरह की चिंता बेवजह नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि संचार और तकनीक के विकास के साथ चीजें बदलती हैं। लोक विधाओं के साथ भी यह बात लागू होती है। लोक में समय के साथ कई चीजें जुड़ती हैं, और कई चीजें बाहर भी होती हैं। इसलिये हर बदलाव को सार्थक रूप से लेना ही अपनी विधाओं को विस्तार देना होता है। शर्त एक ही है कि इस बदलाव में लोक की आत्मा नहीं मरनी चाहिये। जब हम लोक विधाओं पर बात करेंगे तो स्वाभाविक रूप से लोक के संरक्षण और संवर्धन में लगे लोगों की बात भी होगी। यह अलग बात है कि समय के साथ लोक विधाओं के सामने संकट है। सच यह भी है कि लोक विधाओं को जानने-समझने का एक नया दौर भी शुरू हुआ है। अपनी जड़ों की ओर लौटने को आतुर नई पीढ़ी ने संचार माध्यमों का सही उपयोग कर हमारी पुरानी विरासत को इंटरनेट तक पहुंचा दिया है। अब हमारे लोक का दायरा बढ़ा है। कई ऐसे पुराने गीत हैं जो आपको इंटरनेट पर मिल जायेंगे। यह भी बदलाव का एक सार्थक मुकाम है। इससे अपनी विधाओं पर नये प्रयोग का रास्ता भी निकला है।
लोक विधाओं पर बहुत सारे लोगों ने काम किया है। आकाशवाणी के जिन कार्यक्रमों का जिक्र किया गया है उनमें लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी का विशेष योगदान रहा है। उन्होंने लोक की अभिव्यक्ति का जो व्यापक मंच तैयार किया उसकी नींव पर हमारे गीत-संगीत की बहुत सारी प्रतिभाओं ने अपना रचना-संसार खड़ा किया। आदि कवि गुमानी, मौलाराम, गौर्दा, गोपीदास, कृष्ण पांडे, सत्यशरण रतूड़ी, शिवदत्त सती, मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल साह, नईमा खान, लेनिन पंत, रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ के बाद घनश्याम सैलानी, डा. गोबिन्द चातक, डा. शिवानन्द नौटियाल, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, मोहनलाल बाबुलकर, अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, रतनसिंह जौनसारी, शेरदा ‘अनपढ़’, गोपालबाबू गोस्वामी, बीना तिवारी, चन्द्रकला, मोहन सिंह रीठागाड़ी, झूसिया दमाई, कबूतरी देवी, बसन्ती बिष्ट, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’, नरेन्द्रसिंह नेगी, हीरासिंह राणा आदि ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है। लोक पंरपरा को आगे ले जाने वाली पीढ़ी भी तैयार है। जागर शैली और ढोल-दमाऊ को विश्व पटल तक पहुंचाने वाले जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण हैं तो जौनसार से रेशमा शाह, जागर शैली की हेमा करासी नेगी हैं तो विशुद्ध लोक की आवाज लिये ‘न्यौली’ गाने वाली आशा नेगी भी। अभी लोकधुनों के प्रयोगधर्मी किशन महीपाल और रजनीश सेमवाल से भी लोगों का परिचय हुआ है। अमित सागर ने राही जी की चेत्योली गाकर ‘राही’ जी को सही श्रद्धांजलि दी है। लोक पर ‘पांउवाज’ के प्रयोग भी हमें पुरानी धाती को नये संदर्भों में समझने का रास्ता निकाल रही हैं।
लोक विधाओं पर संक्षिप्त में इतनी बातें हमारे लोक की समृद्धि को तो बताती हैं, लेकिन इससे बात पूरी नहीं होती। इस पर पूरी चर्चा भी कर लें तो समाप्त नहीं होगी। यह बात शुरू ही तब हो पायेगी जब इसमें लोक विधाओं के साथ जीने वाले एक व्यक्तित्व का नाम जोड़ा जायेेगा। वह नाम है- स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’। अब ‘राही’ जी हमारे बीच में नहीं हैं। आज उनकी तीसरी पुण्यतिथि है। पिछले तीन साल से उनका ‘वेवक्त’ फोन नहीं आया- ‘त्याडज्यू, सै गै छा हो?’ कैसे सो सकते हैं। आपकी चेतना के गीत हमारे बीच में हैं। हमेशा चेतन करते रहेंगे। आपके गीत, आपका व्यक्तित्व हमें हमेशा जगाये रखेगा। वैसे ही जैसे रात के साढ़े बारह बजे और सुबह के चार बजे। आपको पूरे समाज की ओर से कृतज्ञापूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि।
source: http://www.merapahad.com/chandra-singh-rahi/

आणां' या 'पखाणा

हमारे गांव के मशहूर ढोलवादक थे गोवर्धन भैजी। ढोलवादन के अलावा उन्हें हम 'आणां' और 'पखाणा' के लिये भी याद करते हैं। वह हर बात पर कोई नया 'ूर जानते होंगे। उन्हें यहां साझा करें। मैं यहां पर गढ़वाली के कुछ 'आणां—पखाणा' दे रहा हूं।
आणां' या 'पखाणा' फिट करने में माहिर थे। आणां और पखाणा मतलब पहेलियां और कहावतें, लोकोक्तियां। मुझे गढ़वाली के कुछ आणां—पखाणा याद हैं, लेकिन जगह, स्थान और बोली के हिसाब से इनमें बदलाव भी हो जाता है। आप उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जोहारी, भोटिया या किसी अन्य लोकभाषा से जुड़े हों तब भी अपने यहां की पहेलियों और लोकोक्तियों को आप जर
सूंगरूं दगड़ मांगळ — अज्ञानियों के साथ बहस
बिना मर्यां स्वर्ग नि जयेंदू — खुद काम किये बिना काम संपन्न नहीं होना
भैंसा क मुख पर फ्यूंल्या फूल — ऊंट के मुंह में जीरा
चोरो मन चंडाल — चोर की दाढ़ी में तिनका
जनि मयेड़ि वनि जयेड़ि — जैसा बाप वैसा बेटा
म्यारा बळदन उथगा बायी नी, जथगा खायी — कम काम का अधिक बखान
जैकु बाबू रिक्कन खायी, वू काळा मुड देखि भि डरद —दूध का जला छांछ भी फूंक फूंककर पीता है
अपणा गिच्चै बौराण — अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना
औता तैं धन प्यारू — निसंतान को धन का मोह होना
भीतर जान्द न भैर आन्द, छजा माँ बैठी कि खुट्टा हिलान्द — निकम्मा
गरूड़ूवा घिंडुड़ा — अच्छे माता पिता की नालायक संतान
जोगि भाजी हगणै बटि — जिसके पास बहुत कम साधन हों
अ खुंड म्यार मुंड — खुद ही परेशानी मोल लेना
बड़ा गोरू बड़ा बछरा — शेरों का शेर
चोर गीज़ काखड़ी बटेक अर्र बाघ गीज़ बकरी बटेक — छोटी चोरी से बड़ी चोरी सीखना
जादा खाणौ जोगि ह्वै पैला बासा भुकि रै — अत्या​धिक लालच में खुद का नुकसान करना
कख राजा की राणी कख मंगतू की काणी — जमीन आसमान का अंतर
बांज बियाई अर गुबडि ह्वाई — कहना कुछ और करना कुछ
तिमला भि खतेन अर नांगा भि देखेन — इज्जत भी गयी और नुकसान भी हुआ
बुगलै बंदूक अर खिन्नै तलवार — दिखावा करना
छुईं लगान्द बल डाला टुक्कू कि — बेसिरपैर की बातें करना
अप्फु पर लपडयूं मोल हैका पर लपोडणू — खुद दलदल में फंसना और दूसरे को भी घसीटना
काणो क्या मंगद, बस द्वी आँखा — अंधे को क्या चाहिए दो आंखें
तुमरै भुज्याँ भट्ट चन छन — कर्मों का फल ?
दानै बछड़ा दांत नि गिणेंदा — मुफ्त के सामान में मीनमेख नहीं निकाली जाती
भैंसों गुस्सा मकड़ा पर — किसी शक्तिशाली के कृत्य की सजा कमजोर को देना
बोडी पैली गिताण छै अब त नाति​ जि व्हेगे — करैला और ऊपर से नीम चढ़ा
अड़ाई पड़ाई जाट सोळा दुनि आट — मूर्ख की कुछ समझ में नहीं आता
......धर्मेन्द्र पंत

उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास

उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास २०१३ तक                प्रस्तुतिकरण : भीष्म कुकरेती                     ( यह लेख उत्तराखंडी फिल्...